सोमवार, 15 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(४९/५१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*दादू दुई दरोग लोग को भावै, सांई को सांच पियारा ।*
*कौन पंथ हम चलैं कहो धू, साधो करो विचारा ॥४९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! द्वैत भाव और झूठ कपट का असत्य व्यवहार ही संसारी जनों को प्रिय लगता है, किन्तु परमेश्‍वर को तो एक सत्य ही प्रिय लगता है । हे तत्ववेत्ता सन्तजनों ! विचार करके ‘धू’ कहिए - निश्‍चय पूर्वक कहो कि हम ब्रह्मवेत्ता मुक्तजन ‘कौन पंथ’ अर्थात् कौनसे मार्ग पर चलें ? किन्तु ब्रह्मवेत्ताओं के लिए, निष्पक्ष निर्विषय होकर, अखंड ब्रह्मभाव में ही मग्न रहना ही सच्चा मार्ग है ॥४९॥ 
कोऊ तो कहत ब्रह्म नाभि के कँवल मधि, 
कोऊ तो कहत ब्रह्म हृदै में प्रकास है ।
कोऊ तो कहत कंठ नासिका के अग्रभाग, 
कोऊ तो कहत ब्रह्म भृकुटी में वास है ॥ 
कोऊ तो कहत ब्रह्म दसवें दुवार बीच, 
कोऊ तो कहत भौंर गुफा में निवास है ।
पिंड तैं ब्रह्मंड तैं निरन्तर बिराजे ब्रह्म, 
सुन्दर अखंड जैसे व्यापक आकास है ॥ 
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*खंड खंड कर ब्रह्म को, पख पख लीया बांट ।*
*दादू पूरण ब्रह्म तज, बँधे भरम की गाँठ ॥५०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! साम्प्रदायिक लोगों ने अपने - अपने मतों के अनुसार ब्रह्म को परिछिन्न करके बांट लिया है । इस प्रकार से परिपूर्ण व्यापक ब्रह्मस्वरूप को भूलकर अविद्या में अर्थात् अज्ञान में बँध रहे हैं । इनके साथ न जाइये ॥५०॥ 
हिन्दू हद विधि की बहैं, तुर्क मुहम्मद राह । 
मधि मार्ग जगन्नाथ जन, निर्पष चले अचाह ॥ 
ब्रह्म एक बहु भांति करि, जुदा जुदा अपनाइ । 
बिन विचार जगन्नाथ जन, भ्रम लागे भरमाइ ॥ 
पूरण अनुभव के बिना उठते बहुत विवाद । 
पूर्ण हस्ति देखे बिना, सूर लड़े कर वाद ॥ 
पांव जिन गह्यो तिन ऊखल बखान कह्यो, 
दांत जिन गह्यो तिन मूसल दिखायो है ।
सूंड जिन गही तिन दगला की बांह कही, 
कान जिन गह्यो तिन सूप सो बतायो है ।
पूंछ जिन गही तिन लाव सो बखान कह्यो, 
पीठ जिन गही तिन बिटोरी बतायो है ।
सुन्दर कहत ब्रह्म जैसो है सो लख्यो नाहिं, 
आन्धरे न हाथी देख झगरो मचायो है ॥ 
दृष्टान्त ~ एक गाँव में हाथी गया । अन्धों ने हाथी के एक - एक अंग को टटोल - टटोल करके हाथी निश्‍चय करके आपस में झगडने लगे । ऐसे ही षट् शास्त्र आपस में झगड़ते हैं और साम्प्रदायिक लोग भी उपरोक्त साखी के सिद्धान्त को न समझ कर आपस में झगड़ रहे हैं ।
ऐसे ही व्यापक ब्रह्म अनिर्वचनीय है । जिस किसी ने इस तत्त्व का जैसा अनुभव किया है, उसने उसी प्रकार प्रतिपादन किया है । कोई तो अवतारों को, कोई शून्य को, कोई देवताओं को, कोई अल्लाह को, कोई ईसा को और कोई आत्मा को ही ब्रह्म बताते हैं । किन्तु ब्रह्मऋषि उपदेश करते हैं कि सर्वत्र एक रूप, निरुपाधिक, कहिए मत - मतान्तरों के भेद रहित, ज्ञेय और अज्ञेय आदिक सर्व सत्वों में एक परमात्मा की ही सत्ता विद्यमान है । “अस्तु इदम्ता भाव” कहिये - यही व्रह्म है, ऐसा वर्णन करना असम्भव है । किन्तु इदम्ता भाव तो द्वैत में या परिछिन्न वस्तु में सम्भव है और व्रह्मतत्त्व तो अद्वैत और निरुपाधिक है । इस प्रकार भेदवादियों का आपस में तर्क - वितर्क करना सर्वथा निर्मूल ही है । 
*मन विकार औषधि*
*जीवत दीसै रोगिया, कहैं मूवां पीछै जाइ ।*
*दादू दुँह के पाढ में, ऐसी दारू लाइ ॥५१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! शरीरधारी मानव, जीवित अवस्था में तो रोगी दिखाई पड़ते हैं अर्थात् विषय - वासना से जल रहे हैं, अथवा क्लेशदायक बहिरंग साधनों से अत्यन्त दुखी बने रहते हैं और फिऱ मृत्यु के बाद मुक्त होने की इच्छा रखते हैं । इस विषय में ब्रह्मऋषि उपदेश करते हैं कि हे भाईयों ! ऐसी ब्रह्म विचाररूपी दवाई करो कि जिससे संसार पहाड़ की ‘दुँह’(दौं) अर्थात् विषयाग्नि की जलन शान्त होवे ॥५१॥
(क्रमशः)

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