बुधवार, 17 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(५५/५७)


॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*चानक उपदेश*
*औषध खाइ न पथ्य रहै, विषम व्याधि क्यों जाइ ।*
*दादू रोगी बावरा, दोष बैद को लाइ ॥५५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! रोगी दवा तो खाता है, परन्तु परहेज नहीं रखे, तो फिर भयंकर रोग से कैसे मुक्त होगा ? ऐसा रोगी बावला है, बेसमझ है, जो वैद्य की दवाई गलत बताता है । दार्ष्टान्त में गुरु उपदेश तो सुन लिया, परन्तु शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि विषयों का परहेज नहीं रखता, वह मुमुक्षु बावला है । वह जन्म - मरण आदि भयंकर रोग से कैसे मुक्त होगा ?।५५॥ 
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*एक सेर का ठांवड़ा, क्योंही भर्‍या न जाइ ।*
*भूख न भागी जीव की, दादू केता खाइ ॥५६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह पेट एक सेर अन्न का ‘ठांव’ है परन्तु यह रीता ही बना रहता है अर्थात् सुबह - शाम को भरा, फिर खाली । इस जीवन की जन्म - जन्मान्तरों से भी भूख निवृत्त नहीं हुई । कितना ही उपभोग करता आ रहा है ? अर्थात् अधिक से अधिक तृष्णा भोग - पदार्थों की बढ़ती जाती है । परमेश्‍वर का नाम - स्मरण किये बिना इसको सन्तोष नहीं आता ॥५६॥ 
पापी पेट पिटोकड़ा, नकटा रु निपूता । 
रात भरया घी खांड सूं, दिन रीता का रीता ॥ 
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*पशुवां की नांई भर भर खाइ, व्याधि घणेरी बधती जाइ ।*
*पशुवां की नांई करै अहार, दादू बाढै रोग अपार ॥५७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी पशुवृत्ति वाला होकर भक्ष्याभक्ष्य का कोई विचार नहीं करता है, खाने से ही मतलब रखता है । ऐसे मनुष्यों के शारीरिक और मानसिक आशा - तृष्णा रूपी रोग भारी बढ़ जाते हैं । पशु के सामने सब दिन खाने को डालते रहो, वह खाता रहेगा । ऐसे ही पशु वृत्ति वाला मनुष्य संयम का त्याग करके अनेक रोगों को प्राप्त होता है ॥५७॥
(क्रमशः)

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