बुधवार, 17 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(५८/६०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*राम रसायन भर भर पीवै, दादू जोगी जुग जुग जीवै ।*
*संयम सदा, न व्यापै व्याधी, रहै निरोगी लगै समाधी ॥५८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो योगी राम रस को अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा पुनः पुनः पीता है, वह योगी युग - युगान्तरों में अमर भाव को प्राप्त होता है । जो मुमुक्षु सदैव अपने मन को विषयों की तरफ से संयम कर लेता है, वह जन्म - मरण की व्याधि से निरोग होकर सहजावस्था रूप समाधि में स्थिर रहता है ॥५८॥ 
युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्यु कर्मसु । 
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ - गीता
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*शिश्‍न श्‍वास*
*दादू चारै चित दिया, चिन्तामणि को भूल ।*
*जन्म अमोलक जात है, बैठे मांझी फूल ॥५९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सांसारिक प्राणियों ने आत्मा को भूलकर, खान - पान, विषय - विकार आदि में ही पशु की भांति अपनी वृत्ति लगाई है । अथवा चार अवस्थाओं में ही आपा अभिमान में फूलकर अज्ञानीजन अपने मानव - जीवन को वृथा गमाते हैं ॥५९॥ 
राम नाम के आलसी भोजन को हुसियार । 
तुलसी ऐसे पतित को, बार - बार धिक्कार ॥ 
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*भरी अधौड़ी भावठी, बैठा पेट फुलाइ ।*
*दादू शूकर स्वान ज्यों, ज्यों आवै त्यों खाइ ॥६०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे हलवाई की भट्टी, कितनी ही बार भरने पर भी आधी ही बनी रहती है, ऐसे ही सांसारिक विषयासक्त देह अध्यासी मनुष्य भी, पेट फुलाकर बैठे हैं और सूअर कुत्तों की तरह निषिद्ध भोग - वासनाओं में ही प्रवृत्त रहते हैं । ये मिथ्यावादी मनुष्य, शरीर के लालन - पालन में ही अमूल्य मनुष्य - जीवन को खो रहे हैं ॥६०॥
(क्रमशः)

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