गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(६४/६६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*जे हम जाण्या एक कर, तो काहे लोक रिसाइ ।*
*मेरा था सो मैं लिया, लोगों का क्या जाइ ॥६४॥*
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज उपदेश करते हैं कि जो हमने ब्रह्म को एक अद्वैत निश्‍चय किया तो, इससे कर्म - काण्डी लोग हमसे क्यों क्लेश करते हैं । हमने तो अपने स्वस्वरूप का विचार किया है । इसमें भेदवादी लोगों का क्या जाता है ? । ६४॥ 
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*करणी बिना कथनी*
*दादू द्वै द्वै पद किये, साखी भी द्वै चार ।*
*हमको अनुभव ऊपजी, हम ज्ञानी संसार ॥६५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! दो चार पद बना दिये, दो चार साखी कह दी, और फिर कहते हैं कि हमको अनुभव ज्ञान हुआ है । संसार के प्राणियों को बहकाते हैं कि हम ज्ञानी हैं, हमारा ज्ञान सुनो । ऐसे आडम्बरी लोग परमात्मा से विमुख ही रहते हैं । वे कथनी वाले ही हैं, करने वाले नहीं हैं ॥६५॥ 
दस पद साखी सीख कर फिर फिर मांडै सींग, 
‘रज्जब’ साधों सौं अड़ै, देखो बिगड़या धींग ।
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*सुन सुन पर्चे ज्ञान के, साखी शब्दी होइ ।*
*तब ही आपा ऊपजै, हम - सा और न कोइ ॥६६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सत्संग में ज्ञान के प्रकरण सुन - सुन कर, एक आध साखी, एक आध शब्द उल्टा - पुलटा जोड़कर या दो चार श्‍लोक, दोहा, चौपाई बनाकर, तब ही अहंकार उत्पन्न होता है कि हमारे समान कोई साखी, श्‍लोक, चौपाई कहने वाला और कौन है ? ऐसे संसार में वंचक पुरुष हैं, जो करनी में फीके हैं ॥६६॥ 
साखी कहीं की, शब्द कहीं का, छंद कहीं से लाया । 
बखनो कहै वह साध नहीं है, सात मूत का जाया ॥ 
(क्रमशः)

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