बुधवार, 17 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(६१-६३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*दादू खाटा मीठा खाइ करि, स्वादैं चित दीया ।*
*इन में जीव विलंबिया, हरि नाम न लीया ॥६१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी मनुष्यों ने खाटा, मीठा, चरपरा, अलूना, सलूना आदिक स्वादों में ही अपने चित्त को दिया है । इन्द्रियों के भोगों में ही जीव रच रहा है । मनुष्य जन्म पाकर जो परमेश्‍वर के स्मरण को भूल बैठे हैं, ऐसे राम - विमुख जीवों का कल्याण किस प्रकार होगा ?। ६१॥ 
कट्वक्ल - लवणात्युष्ण तीक्ष्ण - रुक्षविदाहिनः । 
आहारा राजसस्येष्टा दुःख शोकामयप्रदाः ॥ 
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*भक्ति न जाणै राम की, इन्द्री के आधीन ।*
*दादू बँध्या स्वाद सौं, ताथैं नाम न लीन ॥६२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर ने पर उपकार और भक्ति करने को मनुष्य का शरीर दिया था, परन्तु अज्ञानी संसारीजन परमेश्‍वर की आज्ञा को भूलकर इन्द्रियों के भोग - वासनाओं में ही आसक्त रहकर परमेश्‍वर का नाम - स्मरण भी नहीं कर सकते हैं, दीन दुखियों की सेवा और उपकार तो दूर रहा ? ऐसे लोग मन्दभागी हैं ॥६२॥ 
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*सांच*
*दादू अपना नीका राखिये, मैं मेरा दिया बहाइ ।*
*तुझ अपने सेती काज है, मैं मेरा भावै तीधर जाइ ॥६३॥* 
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज उपदेश करते हैं कि हे वादी ! तू अपने कर्म - धर्म को अच्छी तरह रखना, मैंने, मेरा त्याग दिया तो तुम्हें क्या दुःख है । तुम्हें तो अपने कर्त्तव्य - कर्मों के फल से मतलब है । मैं, जैसा मेरा बहाव है, उधर जाऊँगा ॥६३॥ 
हे साधक ! तुमको अपने “अहं ब्रह्मास्मि”, “सोऽहं” आदिक के स्वरूप विचार से ही प्रयोजन है । अहंता ममता त्यागकर स्वस्वरूप विचार में ही मग्न रहिये ।
(क्रमशः)

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