मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

= माया का अंग १२ =(१५१ /१५३ )

॥दादूराम सत्यराम॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*सूरज फटिक पाषाण का, तासौं तिमिर न जाइ ।*
*साचा सूरज परगटै, दादू तिमिर नशाइ ॥१५१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! बिलोरी पत्थर का सूर्य बनाकर पहाड़ पर रख दें, तो उससे रात्रि रूपी अन्धेरा दूर नहीं होगा । जब सच्चा सूर्य प्रकट होता है, तभी अन्धकार दूर होता है । दार्ष्टान्त में, बहिरंग साधनों से अन्तःकरण का अज्ञान दूर नहीं होता है । आत्मबोध रूप सूर्य के उदय होते ही अन्धकाररूपी अज्ञान नष्ट हो जाता है ॥१५१॥ 
सोरठा : - 
दिनिचर देवा लांह, कूँची बस देवा बदन ।
ते के हातां लांह, ऊघड सी अकर्म तणां ॥ 
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*मूर्ति घड़ी पाषाण की, किया सिरजनहार ।*
*दादू साच सूझै नहीं, यों डूबा संसार ॥१५२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! पत्थर की मूर्ति बहुत सुन्दर बनाकर उसका नाम सिरजनहार रख दें, तो उससे क्या काम सिद्ध होता है ? सिरजनहार तो सृष्टि की उत्पत्ति, पालन, संहार आदि कर्मानुसार करते हैं, इसलिए उस नकली मूर्ति को त्यागकर असली सिरजनहार की उपासना करें ॥१५२॥ 
पाहन पूजे पृथवी, मोहि अचंभा आहि । 
जुतोवह आपहि बूड़ै, सुतो तिरावत काहि ।
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*पुरुष विदेश कामिनी किया, उसही के उणिहार ।*
*कारज को सीझै नहीं, दादू माथे मार ॥१५३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! पति विदेश में है और पतिव्रता स्त्री पति की मूर्ति बना कर रख ले, तो जो काम पति, स्त्री का करता है, वह काम - पूर्ति मूर्ति नहीं कर सकती । ऐसे ही परमात्मा की मूर्ति बनाकर उससे मोक्ष सुख चाहें, तो वह नहीं दे सकती । अत: ऐसे साधनों में क्यों माथा मारते हो ?।१५३॥ 
(क्रमशः)

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