शनिवार, 20 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(७६/७८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*झूठै गुरु*
*आतम लावै आप सौं, साहिब सेती नांहि ।*
*दादू को निपजै नहीं, दोन्यूं निष्फल जांहि ॥७६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो गुरु, शिष्य को अपनी सेवा आदि कार्यों में ही लगाया रखे और साहिब परमात्मा की भक्ति ज्ञान का उपदेश कभी न करे । ऐसे झूठे गुरु और झूठे शिष्य, दोनों ही परमार्थ मार्ग में नहीं पनप पाते ॥७६॥ 
कबीर कान फुका गुरु हद का, बेहद का गुरु और । 
जब बेहद का गुरु मिलै, तब लगै ठिकाने ठौर ॥ 
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*तू मुझ को मोटा कहै, हौं तुझ बड़ाई मान ।*
*सांई को समझै नहीं, दादू झूठा ज्ञान ॥७७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ऐसे झूठे गुरु, “कहैं कुछ और करैं कुछ”, ऐसे ही झूठे शिष्य गर्भवास के कौल को बिसरे हुए परस्पर दोनों ही अपने आप की प्रशंसा करते हैं । शिष्य कहता है कि मेरे गुरु तो महान् हैं और गुरु कहता है कि मेरा शिष्य तो ऐसा आज्ञाकारी है कि जैसे रामचन्द्र के हनुमान थे । परमेश्‍वर से दोनों ही विमुख हैं, उनका ज्ञान केवल मायावी है, ऐसे गुरु का संग त्यागने योग्य है ॥७७॥ 
कबीर झूठे गुरु को नमस्कार, और सांचे गुरु की सेव । 
झूठ नखावै, सांच दे, सो कहिए गुरुदेव ॥ 
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*कस्तूरिया मृग
*सदा समीप रहै संग सन्मुख, दादू लखै न गूझ ।*
*सपने ही समझै नहीं, क्यों कर लहै अबूझ ॥७८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे कस्तूरी मृग की नाभि में ही है, किन्तु मूर्ख मृग बाहर पहाड़, पर्वत, घास - फूस में कस्तूरी ढूंढता है । इसी प्रकार मनुष्य के हृदय में ही परमेश्‍वर का वास है, परन्तु परमेश्‍वर से विमुखी पशु - तुल्य, खान - पान विषय भोगों में रत्त, अज्ञानी मनुष्य, इस वार्ता को नहीं जानता है कि मेरे हृदय में ही परमेश्‍वर निवास करते हैं । इसलिए हे मुमुक्षुओं ! अपने आत्म - स्वरूप में ही ब्रह्म का अनुभव करिये ॥७८॥ 
(क्रमशः)

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