शुक्रवार, 19 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(७३/७५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥ 
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*चौंप चरचा*
*दादू श्रोता घर नहीं, वक्ता बकै सु बादि ।*
*वक्ता श्रोता एक रस, कथा कहावै आदि ॥७३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! श्रोता की बुद्धि अन्तःकरण में स्थिर नहीं होवे तो, वक्ता जो आत्म उपदेश करता है, वह सब निष्फल ही जाता है । वही श्रोता और वक्ता की वार्ता सफल है, जिसमें वक्ता और श्रोता दोनों तन्मय रहें अर्थात् स्वस्वरूपाकार हो जावें । वही कथा सत्य है ॥७३॥ 
वक्ता श्रोता मिल चले, कथा करी बन आइ । 
मोक्ष भई त्रिय दोउन की, अस्थि परख जल जाइ ॥ 
दृष्टान्त ~ एक सत्य वक्ता अपनी पतिव्रता स्त्री से बोले ~ “मैं कथा सुनाने जाता हूँ ।” कितने ही गाँवों में लोगों ने उनको पूछा ~ आप कौन हैं ? वह बोला ~ मैं वक्ता हूँ, कथा सुनाने वाला । कई लोगों ने कहा ~ सुनाओ । वह बोला ~ मैं सुनाऊं वैसा श्रोता मिलेगा, तब सुनाऊंगा । 
वैसे ही एक श्रोता भी अपनी पतिव्रता स्त्री से बोला “मैं कथा सुनने जाता हूँ ।” मार्ग में कितने ही कथा - वाचक मिले, उन्होंने पूछा, “तुम कौन हो ?” वह बोला “मैं श्रोता हूँ, परन्तु मैं सुनूं, वैसी कथा सुनावे, उसकी सुनता हूँ ।” देवगति से वह सच्चा वक्ता और सच्चा श्रोता, दोनों मिल गये ।
यथायोग्य रामा - श्यामा हुई और दोनों गंगा के किनारे निर्जन स्थान में जाकर बैठे । वक्ता सिद्ध आसन से बैठकर मन इन्द्रियों को एकाग्र करके ईश्‍वर की कथा सुनाने लगा । श्रोता भी सामने सिद्ध आसन से बैठा और मन इन्द्रियों को कान के पास लाकर एक दिल होकर सुनने लगा । 
जब दोनों की वृत्ति परमेश्‍वर के स्वरूपाकार हो गई, तब उनके शरीर छूट गये और परमेश्‍वर में अभेद हो गये । उधर वक्ता की स्त्री पति को ढूंढने चली, इधर श्रोता की स्त्री भी पति को ढूंढने चली । वैसे ही देवगति से दोनों का मिलाप हो गया । फिऱ वे दोनों मिलकर पतियों की खोज करने लगी । 
इस प्रकार जब गंगा के किनारे पहुँची, तब किसी ने कहा ~ अमुक जंगल में गंगा के किनारे एक कुछ कहता था और दूसरा कुछ सुनता था, फिर वहाँ दोनों के ही शरीर छूट गए । यह सुनकर वे दोनों स्त्रियां वहीं पहुंचीं और आमने - सामने दो हडि्डयों की ढेरी को देखा । निश्‍चय किया कि ये हमारे पतियों की ही हडि्डयां हैं । 
श्रोता की स्त्री बोली ~ “बहन ! तेरे पति शब्द रूपी बाण मारते थे और मेरे पति बाणों को झेलते थे । तेरे पति ने मेरे पति का और अपना उद्धार किया है, तूं मेरा कल्याण कर ।” तब वक्ता की स्त्री बोली ~ “बहन ! जो हडि्डयां शब्द बाणों से बिंधी - बिंधी हैं वे सब तेरे पति की हैं, और जो ठोस - ठोस हडि्डयां हैं, वे सब मेरे पति की हैं । 
छांट लो, अपनी - अपनी झोली में हडि्डयां ले लो और अपने पतिदेव का मन में ध्यान करके शरीरों को छोड़ दो । इसी में हमारा कल्याण है ।” इस प्रकार वे दोनों पतिव्रताएँ परम गति को प्राप्त हो गईं । ब्रह्मऋषि सतगुरु महाराज कहते हैं कि “वक्ता श्रोता एक रस हो जावें”, तभी परमेश्‍वर की प्राप्ति होती है ।
*वक्ता श्रोता घर नहीं, कहै सुनै को राम ।*
*दादू यहु मन थिर नहीं, बाद बकै बेकाम ॥७४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वक्ता और श्रोता दोनों केवल लोक - व्यवहार में दिखावटी परमेश्‍वर की चर्चा करते हैं, परन्तु दोनों का ही मनीराम, राम - भक्ति और ज्ञान में एकाग्र नहीं होने से कथन और श्रवण दोनों ही व्यर्थ हैं ॥७४॥ 
कथनी कथै अगाध की, चलै भेड़ की चाल । 
बोली बोलै श्याल की, कुत्ते फाड़ैं खाल ॥ 
अगाध परमात्मा का कथन करें, परन्तु चाल मायामय चलते हैं और जम्बुक जैसी आवाज लगाते हैं, ऐसे सकामी वक्ता और सकामी श्रोताओं की कालरूपी कुत्ते खाल फाड़ते हैं ।
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*विचार दृढ ज्ञान*
*अन्तर सुरझे समझ कर, फिर न अरूझे जाइ ।*
*बाहर सुरझे देखतां, बहुरि अरूझे आइ ॥७५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अन्तर अन्तःकरण में ज्ञान - विचार के द्वारा आत्मा अनात्मा के स्वरूप को समझकर निषिद्ध वासना और सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त हुए हैं । ऐसे पुरुष फिऱ संसार में आसक्त नहीं होते हैं । देखा - देखी का वैराग्य धारने वाले तो, फिर - फिर कर संसार - चक्र में घूमते रहते हैं, अर्थात् माया के जाल से मुक्त नहीं हो सकते ॥७५॥ 
काम क्रोध अरु लोभ का, घर में कीजे त्याग । 
‘जैमल’ पहली समझकर पीछे ले वैराग ॥ 
जर गई मन की वासना, ब्रह्म अग्नि के माहिं । 
तुलसी भूने बीज ज्यूं, सो फिर ऊगै नाहिं ॥ 
(क्रमशः)

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