शनिवार, 20 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(७९/८१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*बेखर्च व्यसनी*
*दादू सेवक नाम बुलाइये, सेवा सपनैं नांहिं ।*
*नाम धराये का भया, जे एक नहीं मन माहिं ॥७९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर के हम सेवक हैं, इसी नाम से अपने को बुलवाते हैं, किन्तु परमेश्‍वर की सेवा स्वप्न में भी नहीं करते । केवल भक्त नाम ही रखवा लें और भक्ति को जानते नहीं । भक्ति का तो एक भी लक्षण मन में नहीं बसता है । ऐसे पुरुष अपनी इन्द्रियों के विषयों की पूर्ति के लिये ही अपना नाम रखवाते हैं ॥७९॥ 
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*नाम धरावै दास का, दासातन थैं दूर ।*
*दादू कारज क्यों सरै, हरि सौं नहीं हजूर ॥८०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अपना नाम तो दास रखवा लें, कि हम राम के दास हैं, परन्तु दासातन भक्ति से बहुत अलग हैं । दासातन भक्ति तो करने वाले हनुमान जी थे । केवल नाम रखवाने वाले पुरुषों के अर्थात् इस लोक और परलोक के काम कैसे सिद्ध हो सकते हैं ? पापों को हरने वाले हरि, हृदय में ही निवास करते हैं, उनके तो कभी हजूरी बने ही नहीं । माया और विषय भोगों के ही सदा हजूरी बने हैं, उनका कल्याण होना असम्भव है ॥८०॥ 
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*भक्त न होवै भक्ति बिन, दासातन बिन दास ।*
*बिन सेवा सेवक नहीं, दादू झूठी आस ॥८१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर की अनन्य भक्ति धारण किये बिना, भक्त नहीं होता और दासातन भाव को जब तक नहीं अपनावे, तब तक दास नहीं कहलाता और निष्काम सेवा को धारण करे बिना सेवक नहीं हो सकता है । उपरोक्त जो धारणा नहीं है, तो उनकी यह आशा रखना कि वह भक्त है, दास है, सेवक है, यह सब झूठ बात है । यह सब दुनियावी प्रपंच है ॥८१॥
(क्रमशः)

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