रविवार, 21 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(८२/८४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*राम भक्ति भावै नहीं, अपनी भक्ति का भाव ।*
*राम भक्ति मुख सौं कहै, खेलै अपना डाव ॥८२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विषयासक्त मनुष्यों के मन में अपनी मान - प्रतिष्ठा आदि की इच्छा रहती है और राम - भक्ति मुँह से दिखाते हैं । मन विषय - वासनाओं में रचा है, कुल, कुटुम्ब, स्त्री, पुत्र, धन आदि में आसक्त हो रहा है । दिखावा रूप में राम की भक्ति करता है । मन में माया की भावना लगी रहती है । हमको राम - भक्त जान कर कोई हमारी सेवा, पूजा, प्रतिष्ठा करे । हे संतों ! ऐसा पुरुष अपना दाव खेलता है अर्थात् विषयों के व्यापार में ही लगा रहता है । ऐसे सकामी कोई भी राम के सच्चे भक्त नहीं कहे जाते ॥८२॥ 
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*भक्ति निराली रह गई, हम भूल पड़े वन माहिं ।*
*भक्ति निरंजन राम की, दादू पावै नांहिं ॥८३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! भक्ति तो हम से अलग ही रह गई है । हम कहिये त्यागी, तपस्वी, नाम मात्र के वन में जाकर बैठ गये और इसी अहंकार में दबे जा रहे हैं कि हम दुनियां को छोड़ कर वन में बैठे हैं, परन्तु वन में तो शेर आदि पशु भी रहते हैं । राम की भक्ति भूल करके अनेक प्रकार के कष्टप्रद साधन साध रहे हैं और राज - पाट, स्वर्ग - बैकुण्ठ आदि की वासना को लिये हुए हैं । ऐसे पुरुषों को निरंजन निराकार रूप जो राम है, उनकी भक्ति कदापि प्राप्त नहीं होती ॥८३॥ 
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*सो दशा कतहूँ रही, जिहि दिशि पहुंचै साध ।*
*मैं तैं मूरख गह रहे, लोभ बड़ाई बाद ॥८४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिन विवेक, वैराग्य, भक्ति आदि साधनों से सच्चे निष्कामी संतजन पार पहुँचे हैं, उस मार्ग को तो अज्ञानी विषयासक्त संसारीजन भूल रहे हैं । और मैं मेरा, तूं तेरा, इस माया के मोह में तो फँसे ही हैं, ऊपर से लोभ और बड़ाई से घिरे हुए मान - प्रतिष्ठा के लिए वाद - विवाद करते हैं । ऐसे अमूल्य मनुष्य जीवन को व्यर्थ ही खो देते हैं ॥८४॥
(क्रमशः)

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