रविवार, 21 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(८५/८७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= साँच का अंग १३ =*
.
*दादू राम विसार कर, कीये बहु अपराध ।*
*लाजों मारे संत सब, नांव हमारा साध ॥८५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! राम को अन्तःकरण से भूलना, प्रथम तो यह भारी अपराध है, ऐसे मनुष्य से सम्पूर्ण पाप बनते हैं । ईश्‍वर से विमुख साधु, नाम मात्र के भेषधारी, पंडित ब्राह्मण नाम मात्र के, प्रभु को भूले हुए, इस लोक परलोक की विषय - वासनाओं में आसक्त, बहुत से दोष युक्त कर्म करते हैं और अपना साधु नाम रखकर भूत, वर्तमान, भविष्य, तीनों कालों में होने वाले सच्चे संत भक्तों को लज्जित करते हैं ॥८५॥ 
स्वांग पहर अनरथ करै, हरि हरिजन गुरु लाज । 
‘जगजीवन’ जीवन धरत, भगवत भक्ति बाज ॥ 
.
*करणी बिना कथनी*
*मनसा के पकवान सौं, क्यों पेट भरावै ।*
*ज्यों कहिये त्यों कीजिये, तब ही बन आवै ॥८६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मन की वासना रूप पकवान बनाने से पेट नहीं भरता है । पेट तो जब ही भरेगा, जब व्यावहारिक पकवान बनेंगे । इसी प्रकार जैसा मन - वाणी से कहता है, उसी प्रकार, कायिक - वाचिक - मानसिक क्रिया से करे, तब ही सफलता को प्राप्त होगा । कहता कुछ है और करता कुछ है, ऐसे पुरुषों को मनुष्य जीवन का लाभ प्राप्त नहीं होता ॥८६॥ 
मन से खाई चीज बहु, हलवाई की हाट । 
फकीर ने रुपये दिये, यह ले, यह ले साठ ॥ 
दृष्टांत - एक फकीर हलवाई की दुकान पर बहुत प्रकार की मिठाइयां देखकर खड़ा हो गया और मन के संकल्प से खाता गया तथा उनके स्वाद की बड़ाई हलवाई को सुनाता गया । अन्त में बोला - “अब तृप्त हो गये, चलते हैं ।” हलवाई - मिठाई के पैसे तो देते जाओ । फकीर ने कहा - यह ले, मिठाइयों के साठ रुपए तुझे देता हूँ । हलवाई - “कहा ही है, दिया तो नहीं ।” फकीर - “तूने मिठाई भी कहाँ दी थी, हमने तो मन से ही खाई थी । अतः मन से ही रुपये दिये हैं ।” हलवाई चुप हो गया क्योंकि जैसे मन की कल्पना से फकीर का पेट नहीं भरा, वैसे ही हलवाई को कथन मात्र से रुपये नहीं मिले ।
.
*दादू मिश्री मिश्री कीजिये, मुख मीठा नाहीं ।*
*मीठा तब ही होइगा, छिटकावै माहीं ॥८७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मिश्री - मिश्री करने से मुख मीठा नहीं होता है । मुख तो मीठा तभी होगा, जब मुख में मिश्री डालोगे । ऐसे ही केवल कथनी मात्र से ब्रह्म की प्राप्ति नहीं होती है । निर्वासनिक होकर श्रवण, मनन, निदिध्यासन करने से या महावाक्यों के अर्थ के विचार से स्वस्वरूप ब्रह्म का निश्‍चय होता है ॥८७॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें