सोमवार, 22 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(८८/९०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*दादू बातों ही पहुंचै नहीं, घर दूर पयाना ।*
*मारग पन्थी उठि चलै, दादू सोई सयाना ॥८८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! घर तो दूर है और बातें करने से मार्ग नहीं कटता है । चलने से ही ठिकाने पहुँचोगे । दार्ष्टान्त में, सकाम कर्म - काण्ड की बातों से छुटकारा नहीं होगा । जब सच्चे सतगुरु की शरण में जाएगा और सत्य उपदेश को श्रवण करके धारण करेगा, तभी मोक्ष होगा । ऐसा जिज्ञासु ही चतुर है ॥८८॥ 
बात करै को नगर की, मग में धरै न पग । 
‘मोहन’ कथनी स्वर्ग की, हरि सुमिरण नहिं लग ॥ 
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*बातों सब कुछ कीजिये, अंत कछू नहिं देखै ।*
*मनसा वाचा कर्मना, तब लागै लेखै ॥८९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! आत्म - साक्षात्कार रूप घर का मार्ग, कर्म - काण्ड से दूर है । उस घर में केवल बातें करने से नहीं पहुंच सकते हैं । जो उत्तम जिज्ञासु है, सतगुरु का उपदेश श्रवण करते ही जिसका मन निदिध्यासन में स्थित होता है, वही समझदार है । जो अपने को मन वचन कर्म से आत्म - अभ्यास में लगाता है, उनका ही मनुष्य जीवन सफल है ॥८९॥ 
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*समझ सुजानता*
*दादू कासौं कहि समझाइये, सब कोई चतुर सुजान ।*
*कीड़ी कुंजर आदि दे, नाहिंन कोई अजान ॥९०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! किस को कहकर क्या समझाइये ? सब ही प्राणी चींटी से लेकर हाथी तक माया - मोह के वश में हुए अपने को अपने - अपने व्यवहार में कुशल मानते हैं और अन्य से अपने को अधिक ज्ञानी समझते हैं । रंक से राजा पर्यन्त अपने आप को अज्ञानी कोई भी नहीं समझता है ॥९०॥ 
सबै सयाने हैं ‘जगन’, अपनी बुधि उनमांन । 
आ समझ समझै अपन, सोही समझो जांन ॥ 
(क्रमशः)

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