सोमवार, 22 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(९१/९३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*करणी बिना कथनी*
*शूकर स्वान सियाल सिंह, सर्प रहैं घट मांहि ।*
*कुंजर कीड़ी जीव सब, पांडे जाणैं नांहि ॥९१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी संसारीजन पशु - वृत्ति वाले, जिनके अन्तःकरण में नाना प्रकार की विषय - भोगों की फुरणायें होती रहती हैं, परन्तु शरीरधारी यह नहीं समझता कि ये अन्तःवृत्तियां त्यागने योग्य हैं जैसे स्वजाति द्वेष से कुत्ते की भांति भौंकना, कायर वृत्ति गीदड़ की, कीड़ी की वृत्ति दूसरे के छिद्रों(दोषों) को ढूंढते रहना, शेर की वृत्ति क्रोध करना, संशय वृत्ति सर्प की, हाथी की काम वृत्ति । ब्रह्मऋषि जगतगुरु कहते हैं ‘कि हे पांडे ! ये सब स्वभाव जीवों के, अपने अन्दर वर्तते हैं । परन्तु इस बात को गाल बजाने वाले बाचक पंडित और साधारण प्राणी नहीं जान पाते हैं कि शरीर से मनुष्याकृति लिये हम वृत्तियों से पशु - तुल्य ही है ॥९१॥ 
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*दादू सूना घट सोधी नहीं, पंडित ब्रह्मा पूत ।*
*आगम निगम सब कथैं, घर में नाचै भूत ॥९२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अन्तःकरण तो ज्ञान, भक्ति, वैराग्य के बिना शून्य है जिनका, और वाचक पंडित अपने को ब्रह्मा का पुत्र वशिष्ट के समान मानते हैंऔर आगम शास्त्र, निगम वेदों के ज्ञाता बताते हैं । उनके अन्तःकरण रूपी घर में तो पंच ज्ञानेन्द्रिय विषय और काम, क्रोध आदि भूत नाच रहे हैं । उनको वे नहीं देख पाते ॥९२॥ 
ज्ञान भक्ति वैराग्य बिन, हिरदो सूनो जान । 
पंडित पद पाये कहा, करी न हरी पिछान ॥ 
तीन ताप में जग जलै, पंडित सप्त किसोर । 
हार जीत अरु पाठ विसर्जन, चार ताप भई ओर ॥ 
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*पढे न पावै परमगति, पढे न लंघै पार ।*
*पढे न पहुंचै प्राणियां, दादू पीड़ पुकार ॥९३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! केवल वाचक ज्ञान के सांसारिकजनों को स्वस्वरूप का साक्षात्कार अनुभव नहीं होता है । ज्ञान के साधनों से ही सफलता प्राप्त होती है । इसलिये जिज्ञासा वृत्ति से ही संसार से पार उतरिये ॥९३॥ 
श्‍लोक ~ 
यथा खरश्चन्दन भारवाही, 
भारस्य वेत्ता न तु चन्दनस्य । 
एवं हि शास्त्राणि बहून्यधीत्य, 
चार्थेषु मूढाः खरवद् वहन्ति ॥ 
(क्रमशः)

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