रविवार, 28 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(१२७/१२९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*बासण विषय विकार के, तिनको आदर मान ।*
*संगी सिरजनहार के, तिन सौं गर्व गुमान ॥१२७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी संसारीजन, विषय - विकारी मनुष्यों को तो आदर सम्मान देते हैं, परन्तु परमेश्‍वर के भक्तों से गर्व, गुमान और द्वेष रखते हैं । उनके संसार - बन्धन और जन्म - मरण के दुःख कभी नहीं कटेंगे ॥१२७॥ 
कूबा की तिय भ्रात हित, खीर करी मतिहीन । 
संतन को करी राबरी, कूबा लीन्हा चीन्ह ॥ 
संतां आयां उनमनी, भाया आयां सूरी । 
केवल कूबा यों कहै, निकल घर की पूरी ॥ 
दृष्टान्त ~ पाली मारवाड़ के झीथड़ा गाँव में कुम्हार जाति के केवलकूबा भक्त थे । उनकी स्त्री कम्ब‘त थी । केवलकूबा जी के यहाँ संत खूब आते और सत्संग होता रहता । भगवान् के गुणानुवाद आप गाते और संतों से सुनते । परन्तु उनकी स्त्री संतों के लिए रसोई बनाती तो, मन में बहुत दुखी रहती और यह सोचती कि रोज - रोज नये मोडे सन्यासी आवें सैं, कोई जटावाला सै, कोई घोट - मोट आवै सै, कोई भगवां भेष वाला आवै सै, कोई टीके काढने वाला सै । मन में बड़ी रुष्ट रहती । 
केवलकूबा जी संतों को देखकर हरे हो जाते । एक रोज संतों की मण्डली आ गई । केवलकूबा जी संतों के दर्शन करके प्रफुल्लित हो गए । उधर स्त्री के भाई भी आ गये । भाइयों को देखकर स्त्री बहुत राजी हुई । केवलकूबा जी बोले ~ आज संत भी आये हैं और तेरे भाई भी आये हैं, खीर का भोजन बना ले । वह बोली ~ “संत तो रोज ही यहाँ आते रहते हैं, मेरे भाई तो आज ही आए हैं । संतों के लिए खीर क्या बनाऊँगी ? इनके लिये जहर घोलूंगी ।” 
केवलकूबा जी ने खूब बढिया दूध मंगवा दिया । उसने खीर चढा दी । इधर अड़ौस - पड़ौस से खट्टी लस्सी लाई, उसमें जौ का आटा घोल दिया, एक आंजला नमक का डाल दिया । इधर भाइयों के लिए खीर बनाई, संतों के लिए राबड़ी बनाई । 
केवलकूबा जी ने देखा कि खीर तैयार हो गई । संतों को बुलाया और चरण धोए । जितना परिंडे में पानी भरा था, उससे संतों के करमण्डलु वगैरा भर दिये, बाकी का गिरा दिया । स्त्री से बोले - “खीर तैयार हो गई ? पानी नहीं है, पानी भर ल्या, कुएँ पर सै ।” वह सोचने लगी कि निकम्मा कहीं इन मोडे - सन्यासियों को खीर न खिला दे, पर पानी तो जरूर लाना है । यह विचार कर, कुएँ पर पानी लेने गई । 
पीछे से केवलकूबा जी ने संतों को जिमाना शुरू कर दिया । तत्काल पानी लेकर लौटी । देखा तो संत खीर जीम रहे हैं । देखते ही जल भुन गई और गालियां देने लगी । संत लोग बोले ~ “भक्त जी, माता राम गालियां देती हैं । कूबाजी बोले ~ “महाराज ! यह यूं कहती है, भजन गा गा कर खाओ, चुपचाप क्यों खाते हो ?” तो किसी संत ने श्‍लोक बोल दिया, किसी ने भजन गा दिया और फिर खीर खाने लगे । जब केवलकूबा जी ने देखा कि यह ऐसे नहीं मानती है, तब आप बोले ~ 
हरि के लेखै रूखा - सूखा, बूरा - भात चमारां नै । 
ऐसा काम करै मत भाई, ले डूबेगी सारां नै ॥ 
फिर बोले ~ “मूर्ख ! यह सन्तों के प्रताप से ही सब कुछ आ रहा है, उनको तू खाटी राबड़ी पिलाती है और तू सांसारिक विषयी - पामर जीवों को खीर खिलाती है । ऐसे काम करने से दोनों कुलों को डुबोवेगी । तू घर से बाहर हो जा ।” उसके बाद स्त्री पति के चरणों में पड़ गई, अपना अपराध क्षमा चाहा और ईश्‍वर के सन्मुख होकर संतों की सेवा द्वारा अपना कल्याण कर लिया । सब पाप - ताप से मुक्त हो गई । 
*अंधे को दीपक दिया, तो भी तिमिर न जाय ।* 
*सोधी नहीं शरीर की, तासन का समझाइ ॥१२८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे अन्धे मनुष्य को रोशनी दिखाने पर भी उसका अहंकार नहीं मिटता है, वैसे ही जिन पुरुषों का मन पवित्र और निर्वासनिक नहीं बना है, उनको ज्ञान उपदेश देने से भी उनके अज्ञान रूप अन्धकार का नाश नहीं होता है ॥१२८॥
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*सगुरा निगुरा* 
*दादू कहिए कुछ उपकार को, मानै अवगुण दोष ।* 
*अंधे कूप बताइया, सत्य न मानै लोक ॥१२९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे अंधा मनुष्य मार्ग के कूप आदि बताने वाले पुरुष पर क्रोध करता है और उसकी आज्ञा नहीं मानता है, उसका फल तो अंधे का कूप में गिरना है । इसी प्रकार सांसारिक विषयी - पामर अज्ञानियों को संतजन उपदेश करें कि कुछ तन - मन - धन से उपकार किया करो, अर्थात् दीन - दुखी गरीबों की सेवा किया करो और ईश्‍वर का नाम स्मरण करो, तो वह अज्ञानी उस शिक्षा को अवगुण रूप समझते हैं और उनसे द्वेष करते हैं । वे इस संसार रूपी कूप में ही गिरते हैं ॥१२९॥ 
(क्रमशः)

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