रविवार, 28 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(१२४/१२६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= साँच का अंग १३ =*
*दादू पानी के बहु नाम धर, नाना विधि की जात ।*
*बोलणहारा कौन है, कहो धौं कहाँ समात ॥१२४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन एक ही पानी के चड़स का जल, मटके का जल आदि, बहुत से नाम रखकर भ्रम में उलझ रहे हैं । इसी प्रकार ‘धौं’ कहिए, निश्‍चय ही अज्ञानीजन चेतन सत्ता के अनेकों नाम धरकर जाति - पांति, नाम रूप, ऊंच - नीच आदि में बांध रखा है । परन्तु हे अज्ञानियों ! वास्तविक विचार कर देखो कि यह बोलने वाला जीवात्मा कौन है ? और अन्त समय में यह किसमें समाता है अर्थात् जीवात्मा का शुद्ध रूप क्या है ? इसका कोई भी विचार नहीं करते हैं ॥१२४॥ 
*जब पूरण ब्रह्म विचारिये, तब सकल आत्मा एक ।*
*काया के गुण देखिये, तो नाना वरण अनेक ॥१२५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उपरोक्त साखी के सिद्धान्त को ही स्पष्ट करते हैं अर्थात् जब ब्रह्म की पूर्ण सर्व - व्यापकता का विचार करिये तो सब जीवात्मा एक ही रूप हैं, क्योंकि सर्व में एक ही चेतन की सत्ता भासती है । और जो शरीर के गुणों और स्वभावों का विचार करें तो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदिक अनेक वर्ण हैं तथा सर्व की आकृति भी अलग - अलग देखने में आती है, परन्तु ये सब मिथ्या हैं । एक चेतन सत्ता ही सत्य है ॥१२५॥ 
एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । 
एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ 
*अमिट पाप प्रचण्ड*
*भाव भक्ति उपजै नहीं, साहिब का प्रसंग ।*
विषय विकार छूटै नहीं, सो कैसा सत्संग ॥१२६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जहाँ ईश्‍वर की चर्चा में श्रद्धा - प्रेम उत्पन्न नहीं होवे और सांसारिक विषय - विकारों का छुटकारा नहीं होता, तो वहाँ कैसा सत्संग है ? ऐसा संग तो निष्फल होता है, वह तो कुसंग ही है ॥१२६॥
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें