सोमवार, 29 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(१३०/१३२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*कालर खेत न नीपजै, जे बाहे सौ बार ।*
*दादू हाना बीज का, क्या पचि मरै गँवार ॥१३०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे ऊसर भूमि में बीज बोने से फसल प्राप्त नहीं होती है, बल्कि बीज का नाश ही होता है । इसी प्रकार सांसारिक पामर विषयीजनों को उपदेश देने से भी उनको चेत नहीं होता है । वह कर्त्तव्य - परायण नहीं बनते हैं । उन कृतघ्नी गंवारों को उपदेश देना, उपदेश का दुरुपयोग ही करना हैं । वे संतों में दोष ही निकालते हैं । उनसे मौन ही अच्छा है ॥१३०॥ 
*कृत्रिम कर्ता* 
*दादू जिन कंकर पत्थर सेविया, सो अपना मूल गँवाइ ।* 
*अलख देव अंतर बसै, क्या दूजी जगह जाइ ॥१३१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी संसारी मनुष्य, परमेश्‍वर को हृदय में न देखकर परमेश्‍वर से विमुख रहते हैं और अपने मूल मनुष्य देह को वृथा ही, बहिरंग कल्पित देव आदि की उपासना में खोते हैं अर्थात् कंकर पत्थर आदिक जड़ पदार्थों में पच - पच कर मरते हैं ॥१३१॥ 
हरिदास सांची कहै, साहिबजी की सूंह । 
पाहन कूँ कर्त्ता कहै, ताका काला मुँह ॥ 
*पत्थर पीवे धोइ कर, पत्थर पूजे प्राण ।* 
*अन्तकाल पत्थर भये, बहु बूडे इहि ज्ञान ॥१३२॥* 
 टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अब प्रस्तुत साखियों का विशेष विवरण, कारण ब्रह्म की उपासना से ही तात्पर्य है जो अब कारण ब्रह्म की उपासना में ही अधिकार रखते हैं, उनको बताते हैं कि ब्रह्म सम्पूर्ण सृष्टि का कारण है । 
सत संकल्प, सर्वज्ञ, स्वतंत्र है और वह ब्रह्म मेरा ही आत्मा - स्वरूप है अर्थात् मैं ही ब्रह्म हूँ । सर्वत्र अनन्त रूपों में मेरा ही सत् चित् आनन्द स्वरूप व्यापक है । इसी रीति के सर्व पदार्थों में जड़ - भाव त्याग करके, सर्वज्ञ और चैतन्य भाव से ब्रह्मा की उपासना युक्त है । 
इसी रीति से भगवान का उपलक्षण करके, मूर्ति - पूजन का भी भगवत् की सर्वज्ञता से ही मतलब है । किन्तु अल्प बुद्धिजन, केवल मूर्ति और मन्दिर में ही परमेश्‍वर को, एक देशीय, परिछिन्न मर्यादित मानकर परमेश्‍वर की सर्वव्यापकता का भाव, जो आत्म - कल्याण के लिए इष्ट है, उसको बिसर जाते हैं, सो अयुक्त है । 
इसलिये प्रस्तुत साखियों में परमेश्‍वर की जड़ता व परिछिन्नता के निषेध और चेतनता व सर्वज्ञता के पूर्णभाव को प्रगट करने मात्र में ही गुरुवाणी का अभिप्राय है और विचार - सागर के मतानुसार, ब्रह्म का चिन्तन परब्रह्म और अपरब्रह्म रूप से दो प्रकार से माना है । 
निर्गुण ब्रह्म की उपासना को परब्रह्म का चिन्तन माना है और इसका फल मोक्ष है । परन्तु अपरब्रह्म सगुण के सकामी उपासकों के लिये परम पद ब्रह्म लोक माना है । ब्रह्मलोक में पुनः पूर्वाभ्यास से ज्ञान होने पर मोक्ष होता है । इस रीति से जिज्ञासुओं के लिये निर्गुण ब्रह्म का चिन्तन ही युक्त है । उत्तम श्रेणी के पुरुषों के लिये, सगुण उपासना का निषेध और निर्गुण ब्रह्म की उपासना की विधि, लय - चिन्तन प्रक्रिया में भी प्रस्तुत साखियों का अर्थ ज्ञेय है । सर्व स्थावर जंगम जगत में एक चेतन ब्रह्म का भाव ही है । वही ब्रह्म की उपासना है ॥१३२॥
(क्रमशः)

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