शनिवार, 27 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(१२१/१२३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*सांप गया सहनाण को, सब मिलि मारैं लोक ।*
*दादू ऐसा देखिए, कुल का डगरा फोक ॥१२१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे सांप के निकल जाने पर लीक पीटने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, अर्थात् सांप नहीं मरता है, इसी प्रकार प्राणी के प्राणान्त होने पर फिर मृतक के निमित्त श्राद्ध और क्रिया - कर्म कराने से मुक्ति प्राप्त नहीं होती । सतगुरु भगवान् उपदेश करते हैं कि रूढि मर्यादा ये सब मिथ्या हैं । इनसे आत्म - कल्याण नहीं होता है किन्तु यह तो गधा - खुजाल धर्म है ॥१२१॥ 
गया पिंड धोती खुली, सुत पुनि तैसे धारि । 
पीर फूलो तीर पै, बालक को जु उतारि ॥ 
दृष्टान्त ~ एक वैश्य था । वह अपने लड़के को साथ लेकर, अपने बाप के पिंड भराने गयाजी गया । फलगु नदी में जब पिंड भरा दिये, पंडा बोला ~ “सूर्य को अर्घ्य दो ।” तो दोनों हाथों में जल लेकर जब खड़ा होने लगा, तो पीछे से धोती का पल्ला एड़ी के नीचे दबकर खुल गया । 
तब लड़के ने पिता की तरफ देखा, अपने मन में उस बात को रख लिया । जब सूर्य को अर्घ्य दे चुका, तो धोती की लांग अच्छी तरह टांग ली । पंडे को दक्षिणा वगैरा देकर घर आ गये । जब उसका शरीर बर्त गया, तब वह लड़का अपने बाप के पिंड भराने गया । पिंड भराये । पंडा बोला ~ “सूर्य को अर्घ्य दो ।” 
लड़का अपनी धोती की लांग खोलने लगा । पंडा ने पूछा ~ “यह क्या करते हो ?” लड़का बोला ~ “हमारे कुल का धर्म है कि सूर्य को लांग खोलकर जल देते हैं । मेरे पिता के साथ मैं आया था, तब उनने जब सूर्य को जल दिया, तो धोती लांग खोलकर जल दिया था ।” पंडा बोला ~ ऐसा नियम नहीं है । लड़का ~ हमारे तो यह कुल का नियम है । मैं तो वैसे ही अर्घ्य दूँगा, जैसे मेरे बाप ने दिया था । इसको रूढिवाद कहते हैं ।
दूसरा दृष्टान्त ~ ऐसे ही किसी कारण से, एक गृहस्थी ने अपने बच्चे का जङूला नदी के किनारे पीर के उतारा । वहाँ बहुत कौए थे । उनको उड़ाने के लिए उस आदमी ने एक सींक(बतौर तीर) हाथ में ले ली । पीछे वालों ने अपना धर्म बना लिया कि हम उस पीर के हाथ में सींक(तीर) लेकर ही अपने बच्चों के जड़ूले उतरवावेंगे । इसे रूढिवाद कहते हैं ।
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*दादू दोन्यूँ भरम हैं, हिन्दू तुरक गंवार ।*
*जे दुहुवाँ थैं रहित है, सो गहि तत्त्व विचार ॥१२२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! क्या हिन्दू और क्या मुसलमान, दोनों ही भ्रम में बंधे हैं अर्थात् सकाम कर्मों में फँसे हैं । परन्तु आत्मा में न तो हिन्दूपना है और न ही मुसलमान पना है, इन दोनों से ही आत्मा रहित है । आत्मा का न कोई गुण स्वभाव ही है, क्योंकि आत्मा निर्गुण है । इसलिए मुक्त पुरुष संसार के व्यावहारिक चाल - चलन से छूटे हुए हैं, अर्थात् आत्मस्वरूप के चिंतन में मग्न रहते हैं ॥१२२॥ 
हिन्दू को हिन्दुवाना भावै, तुरकन को तुरकाना । 
जगन्नाथ दोऊ सौं न्यारा, पुरुस पंथ मनमाना ॥ 
कुरान कहै पश्‍चिम दिसा, पूरब दिसि कहै वेद । 
‘रज्जब’ दिल हि दीवान था, गुरु बताया भेद ॥ 
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*अपना अपना कर लिया, भंजन मांही बाहि ।*
*दादू एकै कूप जल, मन का भ्रम उठाहि ॥१२३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! एक कूप के जल को, अपने अपने बर्तन में भरकर संसारीजन अपने अपनेपन का मिथ्या अभिमान करते हैं । इसी तरह जाति - पांति, ऊँच - नीच, भेद - भाव, नाम रूप, अनेक नाम, अनेक रूप, आदि का मिथ्या भ्रम उठाकर झगड़ते हैं । इसको तत्त्वज्ञान से अर्थात् आत्म - विचार से दूर करिये । क्योंकि चैतन्य सत्ता सबमें समान रूप से ही विद्यमान है ॥१२३॥ 
(क्रमशः)

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