सोमवार, 29 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(१३३/१३५)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*कंकर बंध्या गांठड़ी, हीरे के विश्‍वास ।*
*अंतकाल हरि जौहरी, दादू सूत कपास ॥१३३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो मन्दबुद्धि पुरुष यह कहता है कि हमारी भावना ही सिद्ध होगी, इसके प्रत्युत्तर में उपदेश करते हैं कि जो हीरों के विश्‍वास से कंकर भर लेवे, तो वे कंकर हीरे नहीं बन जाते हैं और केवल मिथ्या विश्‍वास से ही कपास का सूत स्वतः नहीं हो जाता है । इसी प्रकार से सर्वज्ञभाव का चिन्तन किये बिना कल्पित नाना देव आदि की उपासना से आत्मा की प्राप्ति सम्भव नहीं है ॥१३३॥ 
पति तिय सौंपि कपास, आप गयो परदेश में । 
कात्यौ नहीं उदास, पति आवत प्रपंच रच्यौ ॥ 
दृष्टान्त ~ एक कोई युवक था । उसकी स्त्री उसे यह कहती कि मैं पतिव्रता हूँ । आपके बिना मुझे रोटी नहीं भाती, पानी नहीं पीती । आपकी याद में हर समय बेचैन रहती हूँ । आप विदेश जाओगे, तो मैं किस प्रकार रहूँगी ? पति ने एक कोठा रूई का भर दिया और एक चरखा दे दिया और बोला कि देख, जब तक मैं न आऊं, तब तक इस रूई को कात - कात कर सूत का ढेर लगा दे । तेरी वृत्ति इसमें स्थिर हो जाएगी और तुझे मेरी याद नहीं आएगी । इसको कातेगी, इतने समय तक मैं आ जाऊँगा । 
यह कहकर विदेश रवाना हो गया । पीछे से उस स्त्री ने एक कूकड़ी भी नहीं काती और खूब सांसारिक वासनाओं में व्यस्त रही । पर - पुरुषों के संग फिरती रहती । इसी प्रकार समय सब निकाल दिया । पतिदेव घर आये, आने के साथ ही त्रिया - चरित्र कर लिया । कहने लगी ~ जब से आप गये हो, तब से मेरे सिर का दर्द शान्त नहीं हुआ । ऐसे ही पड़ी रहती हूँ । सूत कातने के लिये तबीयत ही नहीं की । पति ने कोठा वैसे ही रूई का भरा देखा और शरीर की आकृत्ति देखकर जान गया कि यह चरित्रवती नहीं है, चरित्रहीन है । उससे अपनी प्रीति हटा ली । ऐसे ही अनन्य भक्तों से सकामी अलग ही रहते हैं । 
*दादू पहली पूजे ढूंढसी, अब भी ढूंढस बाणि ।* 
*आगे ढूंढस होइगा, दादू सत्य कर जाणि ॥१३४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस मंद - बुद्धि प्राणी ने प्रथम भी शरीर के अध्यास द्वारा नाना प्रकार के देवी - देवताओं को पूजा है और अब भी वही निश्‍चय है । अज्ञानीजन जन्म भर से इस शरीर का ही अंजन - मंजन, पालन - पोषण करता है । इसलिए यह देह का अध्यास भी स्वरूप - बोध में अन्तराय करता है और आगे भी शरीर के संस्कारों से जीवात्मा देह के बन्धन में ही बँधेगा ॥१३४॥ 
*भ्रम विध्वंसण* 
*दादू पैंडे पाप के, कदे न दीजे पांव ।* 
*जिहिं पैंडे मेरा पीव मिले, तिहिं पैंडे का चाव ॥१३५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर से विमुख ले जाने वाले मार्ग माया, मोह, तंत्र, मंत्र, अनुष्ठान और मूर्ति - पूजा आदिक में कभी भी निश्‍चय नहीं करना और ब्रह्म विचार रूप जिस करनी से, आत्मा का साक्षात्कार होता है, उसी मार्ग का अभ्यास करो ॥१३५॥
(क्रमशः)

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