बुधवार, 3 अप्रैल 2013

= माया का अंग १२ =(१५४/१५६ )

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*कागद का मानुष किया, छत्रपति सिरमौर ।*
*राजपाट साधै नहीं, दादू परिहर और ॥१५४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कागज का राजा बना कर गद्दी पर बिठा दें और उसके शिर के ऊपर मुकुट बांध दें और छत्र लगा दें तो भी वह राज की व्यवस्था नहीं कर सकता है । ऐसे ही परमेश्‍वर का चित्र बनाकर रख दें, तो वह सृष्टि का संचालन नहीं कर सकता । इसलिये उसको त्यागकर अन्तः करण में सत्य - स्वरूप आत्मा का बोध प्राप्त करो ॥१५४॥ 
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*सकल भुवन भानै घड़ै, चतुर चलावनहार ।*
*दादू सो सूझै नहीं, जिसका वार न पार ॥१५५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वह परमेश्‍वर चौदह भवन, तीन लोक को नष्ट करके पुनः वैसे ही बना देता है, ऐसे चतुर परमेश्‍वर हैं । इन्होंने तीन लोक और चौदह भवन में अनेक प्रकार की सृष्टि की रचना रची है और फिऱ इस सृष्टि का बड़ी चतुरता से संचालन करते हैं । सब में आप परिपूर्ण रूप से निवास कर रहे हैं । अज्ञानी पुरुषों को ऐसे प्रभु की उपासना नहीं दिखती है, इसी से वह जन्म - जन्मान्तरों में भ्रमते रहते हैं ॥१५५॥ 
आन देव की सेव कर, सुख चाहत पुनि देह । 
प्राण लगै जा पुरुष सौं, तासौं नेक न नेह ॥ 
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*कर्ता साक्षीभूत*
*दादू पहली आप उपाइ कर, न्यारा पद निर्वांण ।*
*ब्रह्मा विष्णु महेश मिल, बांध्या सकल बंधाण ॥१५६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर अपने शुद्ध स्वरूप निरंजन की आराधना के लिए संसारी प्राणियों को उत्पन्न करके आप स्वयं निर्लेप हो रहे हैं अर्थात् माया - शून्य हो गए हैं । ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों देवों ने भगवान् का भुलावा देकर अर्थात् निरंजन को भुलाकर सम्पूर्ण संसार के प्राणियों को माया के सकाम कर्मो में बांध रखा है ॥१५६॥ 
(क्रमशः)

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