बुधवार, 3 अप्रैल 2013

= माया का अंग १२ =(१५७/१५९ )

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*कृत्रिम कर्ता*
*नाम नीति अनीति सब, पहली बांधे बंध ।*
*पशु न जाणै पारधी, दादू रोपे फंध ॥१५७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! माया ने नीति का नाम रखकर, सब संसारीजनों को अनीति के बन्धनों में बांधा है, परन्तु पशु के समान यह सकामी, अविवेकी, अज्ञानी प्राणी इस माया रूप शिकारी के जाल को नहीं जान पाता है । उसे यह नहीं पता है कि यह जाल हमें फँसाने के लिये इस शिकारी ने रचा है ॥१५७॥ 
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*दादू बांधे वेद विधि, भरम करम उरझाइ ।*
*मर्यादा मांही रहै, सुमिरण किया न जाइ ॥१५८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सम्पूर्ण जीवों को वेदों के कर्मकाण्ड रूप सकाम कर्मों में और अनेक देवी - देव आदि की उपासना रूप भ्रम में उलझाकर, इस माया ने बहिरंग साधनों में बांध रखा है । इसीलिए संसारी पुरुषों की निरंजन नाम के स्मरण में चित्तवृत्ति स्थिर नहीं होती ॥१५८॥ 
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*माया नगरी दोष निरूपण*
*दादू माया मीठी बोलणी, नइ नइ लागै पाइ ।*
*दादू पैसि पेट में, काढ कलेजा खाइ ॥१५९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह माया रूप स्त्री बड़ी मीठी - मीठी बोलती है और झुक - झुक कर चरणों में लगती है । यह स्नेह द्वारा पुरुषों के हृदय में बैठती है और फिर उनके कलेजे को खा जाती है, अर्थात् शरीर को थोथा बना देती है ॥१५९॥ 
जयमल मुख थैं मीठी बोलणी, चालै मधुरी चाल ।
जे नर बैठे नेह कर, तिनके बुरे हवाल ॥ 
सबला को अबला कहैं, मूरख लोग जमाल । 
काढि कलेजा खा गई, ये देखो नख लाल ॥ 
(क्रमशः)

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