मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(१३६/१३८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*दादू सुकृत मारग चालतां, बुरा न कबहूँ होइ ।*
*अमृत खातां प्राणिया, मुवा न सुनिया कोइ ॥१३६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उत्तम मार्ग पर चलने वाले का कभी बुरा नहीं होता है, जैसे अमृत पीने वाला प्राणी आज तक मरा नहीं सुना, क्योंकि अमृत पीने वाला तो अमर ही हो जाता है, जैसे ~ राहू ने अमृत पीया, एक से दो हो गये, परन्तु मरा नहीं । देवताओं ने अमृत - पान किया, तब से देवताओं का नाम अमर पड़ गया । इसी प्रकार ज्ञान अमृत को पान करने वाले भक्त भी अमर भाव को प्राप्त होते हैं ॥१३६॥ 
सुकृत मारग चालतां, विघ्न बचै संसार । 
दुःख क्लेश छूटै सबै, जे कोइ लेइ विचार ॥ 
*कुछ नाहीं का नाम क्या, जे धरिये सो झूठ ।* 
*सुर नर मुनिजन बंधिया, लोका आवट कूट ॥१३७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिस निर्गुण ब्रह्म में नाम, रूप, गुण, क्रिया, इन सबका अभाव है, तब उसका नाम और रूप क्या धरें ? कदाचित् धरें तो मिथ्या ही होगा, क्योंकि सत्व प्रधान मायाकृत उपाधि से ब्रह्म में सगुणता प्रतीत होती है । परन्तु वास्तव में विचार करें तो माया ही सत्य नहीं है, तो माया से प्रभावित ब्रह्म में सगुण भावना भी यथार्थ नहीं है । इसलिये अज्ञानी जीव, सुर, नर, मुनि, सब चैतन्य स्वरूप ब्रह्म को भूलकर मिथ्या माया मोह में आसक्त होकर तीन प्रकार की तापों को प्राप्त होते हैं । ‘कूट’ कहिये - वह निश्‍चय ही, जन्म - मरण में जाते हैं ॥१३७॥ 
*कुछ नाहीं का नाम धर, भरम्या सब संसार ।* 
*साच झूठ समझै नहीं, ना कुछ किया विचार ॥१३८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी संसारीजन ‘कुछ नाहीं, कहिए - ब्रह्म का माया के प्रभाव से सगुण स्वरूप मानकर अथवा माया के कार्य देवताओं को ब्रह्म जानकर अनन्त नामों की पक्षा - पक्षी में अर्थात् खींचा - तानी में भ्रम रहे हैं । तथा माया तो मिथ्या है, परन्तु वह ब्रह्म की सत्ता से सत्यवत् प्रतीत होती है । उसको सत्य मानकर, अज्ञानी संसारीजन, माया के कार्य विषय - वासनाओं में भ्रमते हैं ॥१३८॥ 
(क्रमशः)

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