॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= साँच का अंग १३ =*
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*कस्तूरिया मृग*
*दादू केई दौडे द्वारिका, केई काशी जांहि ।*
*केई मथुरा को चले, साहिब घट ही मांहि ॥१३९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्वर सब प्राणियों के अन्तःकरण में ही है, परन्तु संसारीजन उसको अन्तः करण में पहचानते नहीं हैं । जैसे कस्तूरिया मृग, कस्तूरी के लिये इधर - उधर जंगल में दौड़ता है, वैसे ही अज्ञानीजन, बहिरंग तीर्थ - व्रत आदिकों में परमेश्वर को ढूंढते फिरते हैं ॥१३९॥
पूरब दौरे, पच्छिम दौरे, दौरत दक्षिण उत्तर ।
जगन्नाथ दौरे दिसि सबही, रहे राम उर अंतर ॥
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*पूजनहारे पास हैं, देही मांही देव ।*
*दादू ताको छाड़ कर, बाहर मांडी सेव ॥१४०॥*
टीका ~हे जिज्ञासुओं ! सतगुरुदेव उपदेश करते हैं कि हे सेवा पूजन करने वाले भक्त ! तेरे हृदय में ही परमेश्वर निवास करते हैं, उनको अपने हृदय में जानकर नाम - स्मरण रूप पूजा कर अर्थात् अपने आत्म - स्वरूप का ही निश्चय कर, बहिरंग साधनों का त्याग कर दे ॥१४०॥
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*सांच*
*ऊपरि आलम सब करैं, साधू जन घट मांहि ।*
*दादू एता अन्तरा, ताथैं बनती नांहि ॥१४१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन तो बाह्य लोक दिखावा के लिये आचरण करते हैं, अर्थात् शरीर पर चिन्ह आदि धारण करके मूर्ति पूजा आराधना में लगे रहते हैं । परन्तु संतजन अपने अन्तःकरण प्रदेश में ही स्वस्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं । संतों की और सांसारिक जनों की व्यावहारिक कार्य में एकता नहीं बनती है ॥१४१॥
देखि सन्यासी देहुरे, बैठे बोले मूढ ।
करि डंडवत मूरति फटी, तब तत्त समझ्यो गूढ ॥
दृष्टान्त ~ एक ब्रह्मनिष्ठ संत मन्दिर में जाकर बैठे । पुजारी आया और बोला ~ ऐसे ही बैठा है, नमस्कार नहीं किया ठाकुर जी को । संत की गर्दन पकड़ कर उनका मूर्ति की तरफ सिर झुकाया । मूर्ति के चटाक से दो टुकड़े हो गये । तब पुजारी ने गूढ तत्त्व समझा कि यह तो कोई जबरदस्त महापुरुष हैं । उनसे क्षमा याचना की ।
(क्रमशः)
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