मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(१३९/१४१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= साँच का अंग १३ =*
*कस्तूरिया मृग* 
*दादू केई दौडे द्वारिका, केई काशी जांहि ।* 
*केई मथुरा को चले, साहिब घट ही मांहि ॥१३९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर सब प्राणियों के अन्तःकरण में ही है, परन्तु संसारीजन उसको अन्तः करण में पहचानते नहीं हैं । जैसे कस्तूरिया मृग, कस्तूरी के लिये इधर - उधर जंगल में दौड़ता है, वैसे ही अज्ञानीजन, बहिरंग तीर्थ - व्रत आदिकों में परमेश्‍वर को ढूंढते फिरते हैं ॥१३९॥ 
पूरब दौरे, पच्छिम दौरे, दौरत दक्षिण उत्तर । 
जगन्नाथ दौरे दिसि सबही, रहे राम उर अंतर ॥ 
*पूजनहारे पास हैं, देही मांही देव ।* 
*दादू ताको छाड़ कर, बाहर मांडी सेव ॥१४०॥* 
टीका ~हे जिज्ञासुओं ! सतगुरुदेव उपदेश करते हैं कि हे सेवा पूजन करने वाले भक्त ! तेरे हृदय में ही परमेश्‍वर निवास करते हैं, उनको अपने हृदय में जानकर नाम - स्मरण रूप पूजा कर अर्थात् अपने आत्म - स्वरूप का ही निश्‍चय कर, बहिरंग साधनों का त्याग कर दे ॥१४०॥ 
*सांच* 
*ऊपरि आलम सब करैं, साधू जन घट मांहि ।* 
*दादू एता अन्तरा, ताथैं बनती नांहि ॥१४१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन तो बाह्य लोक दिखावा के लिये आचरण करते हैं, अर्थात् शरीर पर चिन्ह आदि धारण करके मूर्ति पूजा आराधना में लगे रहते हैं । परन्तु संतजन अपने अन्तःकरण प्रदेश में ही स्वस्वरूप ब्रह्म का साक्षात्कार करते हैं । संतों की और सांसारिक जनों की व्यावहारिक कार्य में एकता नहीं बनती है ॥१४१॥ 
देखि सन्यासी देहुरे, बैठे बोले मूढ । 
करि डंडवत मूरति फटी, तब तत्त समझ्यो गूढ ॥ 
दृष्टान्त ~ एक ब्रह्मनिष्ठ संत मन्दिर में जाकर बैठे । पुजारी आया और बोला ~ ऐसे ही बैठा है, नमस्कार नहीं किया ठाकुर जी को । संत की गर्दन पकड़ कर उनका मूर्ति की तरफ सिर झुकाया । मूर्ति के चटाक से दो टुकड़े हो गये । तब पुजारी ने गूढ तत्त्व समझा कि यह तो कोई जबरदस्त महापुरुष हैं । उनसे क्षमा याचना की । 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें