शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(११५/११७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*पतिव्रत व्यभिचार*
*दादू औरैं ही औला तके, थीयां सदै बियंनि ।* 
*सो तू मीयां ना घुरै, जो मीयां मीयंनि ॥११५॥* 
टीका ~ हे मीयां ! तू भगवान को तो स्मरण नहीं करता है, जो सब बड़ों से बड़ा है । परन्तु तैने तो और ही पीर - पैगम्बरों का आश्रय ले रखा है, इसी से तू मन्दभागी है । ‘थीयां’ कहिए राम की भक्ति तो अचल है, उसको धारण कर । उसी का कथन - श्रवण करने से इस जीव का कल्याण है ॥११५॥ 
*सत्य असत्य गुरु पारख लक्षण* 
*आई रोजी ज्यों गई, साहिब का दीदार ।* 
*गहला लोगों कारणैं, देखै नहीं गँवार ॥११६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! प्रथम तो भक्तिरूप कमाई को सेवक - सेविकाओं को परचा दिखाने में वृथा गमा दी, और इसी प्रकार अज्ञानी विषयासक्त मनुष्य ने स्त्री, पुत्र, धन आदि में मोह ममता के कारण इस मनुष्य शरीर को वृथा ही नष्ट कर दिया । यह मनुष्य देह परमात्मा की प्राप्ति के लिये मिला था । जैसे - कोई अपनी रोजी को गमा दे, वैसे ही अज्ञानी जीव इस मनुष्य देह को गमा बैठा है ॥११६॥ 
धर्म तज्यो धन कारणै, नर निर्धन अज्ञान । 
ज्यूं बालक नग छाड़ि दे, देखै नेक मिष्ठान ॥ 
मोहम्मद गयो न भिस्त को, ऊम्मत बिना लगार । 
रान्यौं साहिब तास को, यौं जन लग ह्वै ख्वार ॥ 
दृष्टान्त ~ मोहम्मद को लेने को फरिश्ता आए । मोहम्मद साहब बोले ~ “मैं, मेरी सम्पूर्ण ऊम्मत(अनुयायियों की जमाअत) को साथ ले चलूँगा ।” खुदा ने कहा ~ “तुम, तुम्हारी कमाई से बहिश्त में आ सकते हो अन्य नहीं ।” खुदा की आज्ञा नहीं मानी, तब मोहम्मद साहब को(रान्यों) भारी कष्ट उठाना पड़ा । ऐसे ही जगत् से झूठी प्रीति करके भक्त अपने आपको गिरा देता है । 
*पतिव्रत निष्काम* 
*दादू सोई सेवक राम का, जिसे न दूजी चिंत ।* 
*दूजा को भावै नहीं, एक पियारा मिंत ॥११७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सोई राम का सच्चा सेवक है, जिसके अन्तःकरण में राम के भजन से अलग और दुनियावी किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती है । ‘दूजा’ कहिए नामरूप जगत की प्रीति अच्छी नहीं लगती है । एक सजातीय - विजातीय स्वगत भेद रहित परमेश्‍वर का ही पतिव्रत है ॥११७॥ 
कबीर चिन्ता तो हरि नाम की, और न चिन्ता दास । 
जे कुछ चितवै राम बिन, सोई काल की पाश ॥ 
पीर पैगम्बर सब भले, अपनी अपनी ठौर । 
आसिक को भावै नहीं, अलह बिना कोई और ॥ 
(क्रमशः)

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