शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

= माया का अंग १२ =(१६६ /१६८ )

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*माया मारै जीव सब, खंड खंड कर खाइ ।*
*दादू घट का नास कर, रोवै जग पतियाइ ॥१६६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह राम की माया, राम से विमुख जो जीव हैं, उनको मारती रहती है और एक - एक इन्द्रिय को विषयों के द्वारा खाती रहती है । इस प्रकार चीटीं से लेकर हाथी पर्यन्त सम्पूर्ण शरीरों का नाश करती है । संसारी मानव माया से दुखी होकर रोते रहते हैं और फिर भी इसी का विश्‍वास करते हैं ॥१६६॥ 
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*बाबा बाबा कहि गिलै, भाई कहि कहि खाइ ।*
*पूत पूत कहि पी गई, पुरुषा जनि पतियाइ ॥१६७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह राम की माया बड़ी विचित्र है । कहीं तो यह बाबा - बाबा कह कर स्नेह द्वारा गिल रही है और कहीं भाई कहकर स्नेह द्वारा खा रही है । कहीं तो यह राम की माया पूत कह - कहकर स्नेह द्वारा पी गई है अर्थात् श्रेय साधन से गिराती है । हे पुरुषों ! इस राम की माया का विश्‍वास मत करो कि यह तुम्हारा कल्याण कर देगी । कल्याण तो केवल एक राम ही करेगा ॥१६७॥ 
‘मोहन’ नाता धर्म का, नारी पाप घराइ । 
वांछित और पुरुष मिलि, तहाँ न लाज कराइ ॥ 
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*ब्रह्मा विष्णु महेश की, नारी माता होइ ।*
*दादू खाये जीव सब, जनि रु पतीजै कोइ ॥१६८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे राम की माया ने ब्रह्मा, विष्णु, महेश को उत्पन्न किया है, ऐसे ही सम्पूर्ण जीवों को उत्पन्न करती रहती है और विषय आसक्तिरूप वासना द्वारा सबको यह खा जाती है । इसलिये इस माया का हे जीवों ! विश्‍वास न करो । इससे अलग रहकर ज्ञान द्वारा आत्म - सम्पादन करो ॥१६८॥ 
(क्रमशः)

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