गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

= माया का अंग १२ =(१६३/१६५)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*सुन्दरी खाये सांपिनी, केते इहि कलि मांहि ।*
*आदि अन्त इन सब डसे, दादू चेते नांहि ॥१६३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह मायारूप सांपिन अति सुन्दर स्त्री रूप बनी है । इसने कितने ही प्राणियों को अपनी प्रीति में फँसाकर इस कलियुग में खा लिया है, अर्थात् मार दिया है । सृष्टि में आदि से अन्त तक इसने प्राणीमात्र को डस लिया है । फिर इसका विष जन्म - जन्मान्तरों में भी नहीं उतरता है, परन्तु अज्ञानी मनुष्य कोई भी सचेत होकर नहीं देखता ॥१६३॥ 
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*दादू पैसै पेट में, नारी नागिन होइ ।*
*दादू प्राणी सब डसे, काढ सकै न कोइ ॥१६४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह राम की माया नागिन रूप नारी, देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, सभी के हृदय में सूक्ष्म वासना रूप होकर बैठी है । सम्पूर्ण प्राणी अर्थात् चींटी से हाथी तक को विषय - वासना द्वारा डसती है । अपने भीतर से इसकी प्रीति को कोई भी नहीं त्याग सकता है ॥१६४॥ 
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*माया सांपिनी सब डसे, कनक कामिनी होइ ।*
*ब्रह्मा विष्णु महेश लौं, दादू बचै न कोइ ॥१६५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस मायारूप सर्पिणी ने कनक और कामिनी रूप बनाकर सम्पूर्ण सांसारिक प्राणियों को डस लिया है । और कहाँ तक कहें ? ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी इस मायारूप सर्पिणी से नहीं बच पाए हैं । उनको भी इसने समय - समय पर डस लिया है ॥१६५॥ 
जाया माया फंद द्वय, मनिजन मन वश कीन । 
‘जगन्नाथ’ शिव असुर सुर, रूप मोहिनी लीन ॥ 
(क्रमशः)

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