शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

= माया का अंग १२ =(१६९/१७१)

॥दादूराम सत्यराम॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= माया का अंग १२ =*
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*माया बहुरूपी नटणी नाचै, सुर नर मुनि को मोहै ।*
*ब्रह्मा विष्णु महादेव बाहे, दादू बपुरा को है ॥१६९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह राम की मायारूप नटणी अपने अनेकों रूप बनाकर सुर, नर, मुनि को भी रिद्धि - सिद्धि, मान - बड़ाई आदि से जगह - जगह मोहित कर देती हैतथा ब्रह्मा - विष्णु - महेश को भी अपने विषय रूपी प्रवाह में बहा दिये हैं । तो बिचारे शरीरधारी सांसारिक प्राणियों की इसके सामने क्या गणना है ?। १६९॥ 
“बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति” - भागवत
“काम - वासना वसत ही, विनसत ज्ञानी दीठ । 
घुड़ला बन जिमि जैमिनी, लादत कामिनी पीठ ॥”
दृष्टान्त : - भगवान् वेदव्यासजी भागवत की रचना करते हुए अपने शिष्य जैमिनी को जाँचने के लिए देते जाते थे । जैमिनी ने नवम स्कन्ध के उक्त श्‍लोक को पढ़कर सोचा कि क्या इन्द्रियां विद्वानों को कभी विचलित कर सकती है ? नहीं, कभी नहीं । अत: उन्होंने व्यास जी से निवेदन किया कि “विद्वासमपि कर्षति” के स्थान पर “विद्वांसं नापकर्षति” लिखना चाहिये । व्यास जी ने कहा - मैंने जो लिखा है, वही ठीक है । इसमें कोई भूल नहीं है । 
एक दिन जैमिनी ने संध्या के समय अपनी कुटी के बाहर एक सुन्दर युवती को वृक्ष के नीचे वर्षा में भीगते देखा तो वे द्रवित होकर बोले - यह कुटिया तुम्हारी ही तो है । भीतर आ जाओ और आश्रम में विश्राम करो । सुन्दरी बोली - पुरुष कपटी होते हैं । मैं आपका विश्‍वास कैसे करूँ । जैमिनी - मैं पूर्वमीमांसा का आचार्य जैमिनी ॠषि हूँ । क्या मेरा भी विश्‍वास नहीं करोगी ? मेरे जैसे तपस्वी का भरोसा नहीं है तो फिर किसका विश्‍वास करोगी ? अत: निश्‍चिंत होकर आश्रम में विश्राम करो । सुन्दरी आश्रम में आई । बदलने के लिये कपड़े दिये । 
रूपसी को देखकर ॠषि का मन ललचा गया । उन्होंने उसके सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा । युवती ने कहा - मेरे पिता ने प्रतिज्ञा की है कि जो पुरुष घोड़ा बनकर मेरी पुत्री को अम्बाजी माता के दर्शन कराने ले जाएगा, उसी के साथ उसका विवाह करूँगा और मैंने भी पिताजी से कहा है कि आपके दामाद का मुँह काला कर उन्हें ले जाऊँगी । 
जैमिनी सुध - बुध खोकर उसे प्राप्त करने के लिये यह सब कुछ करने को तैयार हो गये । जैमिनी अपनी पीठ पर बैठाकर उसे अम्बाजी के मन्दिर पर ले गये । वहाँ व्यासजी बैठे मिले । उन्होंने सारी बात जानकर जैमिनी से पूछा - “उस श्‍लोक में कौन - सा शब्द होना चाहिये, ‘कर्षति’ या ‘नापकर्षति’ ?” जैमिनी के मन पर मानों बिजली गिर गई । वे सचेत होकर बोले - “गुरु जी, आप ही सच्चे हैं ।”
तभी तो सद्गुरु दादूदयाल जी कहते हैं - “सुरनर मुनि को मोहे ।”
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*माया फाँसी हाथ ले, बैठी गोप छिपाहि ।*
*जे कोई धीजे प्राणियां, ताही के गल बाहि ॥१७०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह राम की माया स्त्री रूप अपने अविद्यारूपी हाथ में स्नेहरूपी अर्थात् प्रेमरूपी फाँसी लिए हुए है । जो भी प्राणधारी इसके नजदीक आता है और इसका विश्‍वास करता है, उसी के गले में फंदा डाल देती है । यह सबके हृदय में छुपकर संस्कार रूप में बैठी हुई है ॥१७०॥ 
हीरा हरिजन हरि कहै, ‘जगन्नाथ’ प्रकाश । 
तेज त्रिया परसै नहीं, अमर सदा अविनाश ॥
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*पुरुषा फाँसी हाथ कर, कामिनि के गल बाहि ।*
*कामिनि कटारी कर गहै, मार पुरुष को खाहि ॥१७१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानी, विषयासक्त, संसारी पुरुष अपने हाथों में प्रेम रूपी फाँसी लेकर स्त्री के गले में डालता है और वह कामिनी कहिए स्त्री रूपी कटारी कटाक्ष द्वारा हृदय पर वार कर उसको परमात्मा की तरफ से गिराकर भोग - वासनाओं के द्वारा खा लेती है ॥१७१॥ 
(क्रमशः)

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