मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

= साँच का अंग १३ =(९७/९९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
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*पढ पढ थाके पंडिता, किनहूँ न पाया पार ।*
*कथ कथ थाके मुनिजना, दादू नाम अधार ॥९७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! आत्म - साक्षात्कार करने का एक गुरु उपदेश ही श्रेष्ठ साधन है और वाचक पंडित धर्म ग्रन्थों को, पुराणों को, शास्त्रों को पढ - पढ करके थकित हो रहे हैं, परन्तु उस परब्रह्मा स्वरूप का किसी ने पार, कहिए अन्त नहीं पाया । मुनि वशिष्ठ, वाल्मीकि, व्यास, आदि कथन करते - करते यानी पुराणों की रचना करते - करते थक गये । परन्तु उस परमेश्‍वर का अन्त किसी ने भी नहीं पाया । सभी ने एक नाम का ही आधार अन्त में बतलाया है ॥९७॥ 
*काजी कजा न जानहीं, कागद हाथ कतेब ।*
*पढतां पढतां दिन गये, भीतर नांहि भेद ॥९८॥*
टीका ~ हे काजी ! तुम अपनी मृत्यु को नहीं जानते हो और पुस्तकें पढते - पढते आयु के दिन बीत रहे हैं, किन्तु तुमने भीतर का भेद कहिए, मर्म अर्थात् स्वस्वरूप को नहीं पहचाना है ॥९८॥ 
काग हंस का न्याव को, अरु तेली को बैल । 
तीजो धेलि कूँस को, मिल्यो बादशाह सैल ॥ 
दृष्टान्त ~ एक कव्वा उड़ता उड़ता मानसरोवर पहुंच गया । वहाँ हंस - हंसनी रहते थे । उन्होंने विचार किया कि यह काला हंस है । उसका अतिथि - सत्कार करने के लिए मानसरोवर से मोती लाकर सामने भोजन के लिये रखे । कव्वे ने चौंच मार कर छोड़ दिये । हंस - हंसनी ने देखा कि यह कोमल भोजन करता है, तो क्षीर - समुद्र से दूध की डलियां उठा कर लाये । कव्वे के सामने रखा । 
कव्वा उठाकर खाने लगा और बोला, “यह तो कोई भोजन भी है, पहले तो कंकर थे वे ।” हंस बोला ~ “आप लोग क्या काले रंग के हंस हो ?” कव्वा ~ “हाँ ।” तब कव्वा वहाँ ‘त्रिशंक त्रिशंक’ बोलने लगा । हंस - हंसनी बोले ~ आप त्रिशंक को बहुत याद करते हो, वह क्या है ? कव्वा बोला ~ हमारा आश्रम है । 
दो चार रोज कव्वे की खूब सेवा की । कव्वे ने विचार किया कि इस हंस की हंसनी को उड़ा लें । तब बोला ~ “आप लोग भी हमारे समुद्र पर चलो ।” हंस - हंसनी साथ हो गये । तीनों उड़ते - उड़ते कई रोज में एक गाँव के बाहर गन्दी तलाई के किनारे एक तीन शाखाओं का एक ठूंठ खड़ा था, कव्वा आकर एक शाखा पर बैठ गया, एक - एक पर हंस - हंसनी बैठ गये । अब त्रिशंक नहीं बोलता है । 
हंस ने पूछा ~ अब आपका समुद्र कितनी दूर है ? कव्वा ~ “यही तो है । भोजन लाऊं ?” तलाई के अन्दर गया और एक मेंडक की टांग पकड़ कर लाया । हंस ~ अरे ! दूर, दूर, इसको अलग रखो । कव्वा ~ “लो दूसरा लाऊं ?” तब मछली की टांग पकड़ कर लाया । हंस ~ “अलग रखो ।” हंस हंसनी को बोला ~ “प्रिये ! हम तो ठग्गी में आ गए ।” 
हंस कौवे से बोला ~ “अच्छा । हम लोग अब चलें ।” कव्वा ~ “तूं जा, यह तो मेरी कव्वी है, इसे कहाँ ले जाता है ?” हंसनी बोली ~ “मैं तेरी नहीं हूँ ।” कव्वा ~ “तुझे इसने बहका लिया । अभी मैं थाने में जाता हूँ ।” कव्वा थानेदार के पास पहुँचा और बोला ~ “उस हंस की हंसनी मुझे दिला दो, तुम्हें तुम्हारी सात पीढ़ी के दर्शन करा दूंगा ।” थानेदार आया । बोला ~ “क्या है ?” हंस बोला ~ “मेरी हंसनी को यह अपनी स्त्री बताता है ।” थानेदार ~ “हाँ , ठीक है, इसको तो हम कव्वे के पास कई दिनों से देख रहे हैं, यह तो कव्वे की ही स्त्री है ।” 
हंस चुप हो गया । थानेदार कव्वे को बोला, “हमारी सात पीढ़ी के दर्शन कराओ ।” पास में मैला पड़ा था, कव्वे ने जाकर उसमें से एक कीड़ा उठाया और कहा ~ “यह तुम्हारा बाप है ।” दूसरा कीड़ा फिर उठाया, बोला “यह तुम्हारा दादा है ।” इस प्रकार सात कीड़े उठा - उठाकर थानेदार को बोलता रहा । थानेदार बोला ~ “अबे ! हमारे दादा, पड़ दादा क्या नरक के ही कीड़े बने हैं ?” तब हंस बोला ~ “ऐसे फैसले करने वालों के तो पूर्वज कीड़े ही बनते हैं ।” कव्वे को थानेदार ने गोली से उड़ा दिया । हंस अपनी हंसनी को लेकर मानसरोवर उड़ गया ।
दूसरा दृष्टान्त ~ एक रोज बादशाह के बैल को पानी पिलाने ले जा रहा था । तेली का लड़का भी घाणी से बैल को खोलकर पानी पिलाने जा रहा था । बैल हाथ से छूट गया, राजा के बैल को देखकर अकड़ा और राजा के बैल के पेट में टक्कर मारी, तो सींग अन्दर घुस गया । बैल की मृत्यु हो गई । बादशाह ने जब यह वृत्तान्त सुना, तो गुस्सा होकर तेली को बुलाया और काजी जी को बोला ~ “इसका फैसला करो ।” काजी ~
लाल कतेब कहत है यों, 
तेली बैल लड़ावै क्यों । 
खली खुवाय किया मुस्टंड, 
बैल का बैल और बीस रुपया दंड ॥ 
तीसरा दृष्टान्त ~ दो मनुष्य आपस में लड़ पड़े । एक ने न्यायालय में जाकर दावा कर दिया । दोनों जब न्यायाधीश के सामने पेश हुए, बयान लिये । न्यायाधीश ने फैसला सुनाया ~ “इसने उसके एक जूता मारा है, इससे एक धेली जुर्माना लिया जाय ।” इसने न्यायाधीश के सामने ही एक जूता - खोलकर उसके एक और मार दिया और एक रुपया देकर बोला ~ “साहब ! मैं अब तुड़वाने कहाँ जाऊंगा ? रुपया ही जमा कर लो ।” बादशाह इस केस का फैसला सुनकर हँस पड़े ।
ब्रह्मऋषि कहते हैं कि काजी ! लाल किताब पढ़ते - पढ़ते आयु के दिन बीत रहे हैं ।
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*मसि कागज के आसरे, क्यों छूटै संसार ?*
*राम बिना छूटै नहीं, दादू भ्रम विकार ॥९९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! केवल स्याही और कागज से बनी पुस्तकों के लिखने - पढ़ने - सुनने मात्र से संसार - बन्धन कैसे छूट सकता है ? निरंजन राम के भजन बिना अन्य उपाय से भ्रम और कामादिक विकार नष्ट नहीं होते । अतः नाम - स्मरण ही भव - बंधन से मुक्त होने का सरलतम साधन है ॥९९॥ 
(क्रमशः)

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