बुधवार, 1 मई 2013

= साँच का अंग १३ =(१४२/१४४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= साँच का अंग १३ =*
*दादू सब थे एक के, सो एक न जाना ।*
*जने जने का ह्वै गया, यहु जगत दिवाना ॥१४२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सब प्राणी एक परमेश्‍वर के रचे हुए हैं और उसी के अंश हैं । परन्तु अपने उपादान कारण परमेश्‍वर को भूलकर आज्ञानीजन नाना देवी - देव आदि की पूजा में वासनाओं द्वारा प्रवृत्त होते हैं । ऐसा यह जगत् विषयासक्त दीवाना हो रहा है ॥१४२॥ 
संख पंचायन ना बज्यो, पांडुन के यज्ञ मांहि । 
सब मिल पूछी कृष्ण से, मम जन जीम्यो नांहि ॥ 
दृष्टान्त ~ पाण्डुवों ने राजसूय यज्ञ प्रारम्भ किया, भगवान् कृष्ण की अध्यक्षता में । यज्ञ समाप्ति की पहचान में, भगवान् ने अपना पंचायन शंख पूजा में रख दिया और बोले ~ “कि जिस दिन यह शंख बिना बजाए आप बजे, तब जान लेना कि आज हमारा यज्ञ पूर्ण हो गया ।” 
उस यज्ञ में बारह कोटि ब्राह्मण प्रतिदिन भोजन करते थे । सम्पूर्ण हस्तिनापुर की प्रजा भी भोजन करती थी । एक सोने की सींक लगाकर पान का बीड़ा प्रत्येक को दिया जाता था । यज्ञ की सामगल्ली पूरी होने को आई, शंख नहीं बजा । 
पांडवों ने भगवान् कृष्ण से प्रार्थना की । भगवान् बोले ~ जिस यज्ञ में भगवान् और भक्त जीमते हैं, वह यज्ञ पूरा होता है । पांडवों ने कहा ~ भगवान् तो आप हैं, भक्त का हमें पता नहीं, कौन रह गया ? भगवान् बोले ~ “बाल्मिक जब जीम ही, तब बजैहि तूरो ।” 
द्रौपदी महारानी से वाल्मीकि बोले - “सौ राजसूय यज्ञ का फल पहले मुझे दे, तब मैं यज्ञ में चलूं ।” द्रौपदी ~ “दान हैसियत के अनुसार होता है, यह तो हर एक दे सकता है, मुझ से कुछ अधिक मांगो ।” वाल्मीकि ~ आपने कितने यज्ञ किए हैं ? द्रौपदी ~ आप जैसे सन्तों के दर्शन से हमें करोड़ों यज्ञों का फल मिल गया । 
“संत मिलन को जाइये, तज आपा अभिमान । 
ज्यौं ज्यौं पग आगै धरै, कोटिन यज्ञ समान ॥” 
सौ अश्‍वमेध यज्ञ तो सौ कदम रखने पर ही हो जाते हैं । मैं तो राजमहल से नंगे पैर आपके पास बहुत दूर से आई हूँ । वाल्मीकि साथ चल पड़े । भगवान श्रीकृष्ण को जब साष्टांग प्रणाम किया, भगवान् ने उठाकर हृदय से लगा लिया । 
पांडवों ने नमस्कार किया, चरण धोए, पूजा की । सुन्दर आसन देकर बैठाया । छप्पन भोग, छत्तीस व्यंजन स्वर्ण के थाल में लगाकर, द्रौपदी महारानी ने वाल्मीकि के सामने थाल लगाकर रखा । वाल्मीकि जी ने ध्यान में भगवान् के भोग लगाया । भगवान् कृष्ण ने सब प्रसाद को पाया, फिर वाल्मीकि को आज्ञा दी कि अब आप पाओ । 
ज्यों ही वाल्मीकि ने मुख में ग्रास रखा तभी शंख जोर से बजा और पांडवों का यज्ञ पूरा हुआ । वाल्मीकि जी ने भगवान् को एक जानकर निश्‍चय किया था । पंडितों ने नाना देवी - देवताओं की आराधना की, उनके जीमने से शंख नहीं बजा । 
शंख बजायो सरगरै, मार्यो सब को मान । 
बखना द्वादस कोटि को, घूरड़र काट्यो घल्लान ॥ 
अर्थात् द्वादस करोड़ ब्राह्मणों के भोजन करने से शंख नहीं बजा, क्योंकि वह अहंकार युक्त थे । वाल्मीकि, निरभिमानी, एक परमेश्‍वर की भक्ति करने वाले थे, उनके भोजन करने से शंख बजा । भगवान् ने ब्राह्मणों का अहंकार नष्ट कर दिया और यह बतला दिया कि मैं भक्ति से ही प्राप्त होता हूँ । “दादू सब थे एक के, सो एक न जाना” । 
*दादू झूठा साचा कर लिया, विष अमृत जाना ।* 
*दुख को सुख सब को कहै, ऐसा जगत दिवाना ॥१४३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर की निष्काम भक्ति, वैराग्य रूपी मार्ग उत्तम है, जीव के कल्याण के लिये । परन्तु बहिर्मुख सकाम कर्मो से आसक्ति वाले मनुष्य उस मार्ग को भूल गये हैं और संसार की वासनाएँ दुखमय हैं, उन्हीं को सांसारिक प्राणी सुख रूप जानकर सांसारिक भोग - वासना में प्रवृत्त होते हैं । ऐसे विषय आसक्त, “दीवाने” कहिए - उन्मत्त हो रहे हैं ॥१४३॥
*सूधा मारग साच का, साचा हो सो जाइ ।* 
*झूठा कोई ना चलै, दादू दिया दिखाइ ॥१४४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! निष्कामी भक्त ही भगवान् की प्राप्ति हेतु भक्ति वैराग्य रूपी मार्ग को धारण करते हैं, वह भक्त ही गर्भवास के कौल करार में भगवान् से पूरे उतरते हैं । सांसारिक विषय आसक्त जीव, भगवान् से झूठे, वे कोई भी इस निष्काम, निर्वासनिक भक्ति वैराग्य रूपी मार्ग पर नहीं चल सकते । यह सतपुरुषों ने विवेक द्वारा बता दिया है ॥१४४॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें