बुधवार, 1 मई 2013

= साँच का अंग १३ =(१४५/१४७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*साहिब सौं साचा नहीं, यहु मन झूठा होइ ।*
*दादू झूठे बहुत हैं, साचा विरला कोइ ॥१४५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमेश्‍वर की भक्ति के पथ पर कोई विरले ही उत्तम जिज्ञासु हैं, किन्तु परमेश्‍वर से विमुखी, सकाम कर्मों में आसक्ति वाले, सम्पूर्ण संसार के प्राणी हैं । वे कहते हैं कि भगवान् से क्या लेना है ? संसार के भोग्य पदार्थों का आनन्द ही प्राप्त करने के लिए मनुष्य का शरीर मिला है । ऐसे आसुरी प्रकृति वाले पुरुष होते हैं ॥१४५॥ 
*दादू साचा अंग न ठेलिये, साहिब माने नांहि ।* 
*साचा सिर पर राखिये, मिलि रहिये ता मांहि ॥१४६॥* 
वेद कहो भावै साध मुख, साच न ठेल्या जाइ । 
साचे सौं मन मानिया, सो तत दिया दिखाइ ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! स्वस्वरूप ब्रह्मभाव और सोऽहं, इसको नहीं बिसारिये, क्योंकि स्वस्वरूप के बोध बिना परमेश्‍वर भक्ति स्वीकार नहीं करते हैं । दुग्ध में जल की भांति ब्रह्म में मन वृत्ति को लय करके स्वस्वरूप में मग्न रहना एवं हरि, गुरु,(सच्छास्त्र), संत, सत् - शास्त्र से पल भर भी अपने को न हटाओ । विमुखी पुरुष प्रभु की प्रभुता को नहीं मानता है, इसलिये सत्संगति द्वारा अनन्य भक्ति करो । अथवा सांचा कहिये - परमेश्‍वर की सर्वज्ञता को न बिसारिये, क्योंकि सर्वज्ञभाव से शून्य पुरुष की मूर्तिपूजा को भगवान् स्वीकार नहीं करेंगे । इसलिये नाना देवी - देव आदिक में प्रभु की सर्वज्ञता को ध्यान में लेकर उनकी सेवा - पूजा करनी चाहिये, और सद्गुरु के ज्ञानयुक्त शब्द का भी यही मतलब है ॥१४६॥ 
*जे कोई ठेले साच कौं, तो साचा रहै समाइ ।* 
*कौड़ी बर क्यों दीजिये, रत्न अमोलक जाइ ॥१४७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन रिद्धि, सिद्धि मायावी प्रलोभन में फँसावें, तो भी हे साधक ! स्वस्वरूप में ही समा कर रहना, क्योंकि सम्पूर्ण मायिक विभूति कौड़ी के तुल्य हैं । इसके बदले में मनुष्य का शरीर एवं ब्रह्मभाव रूप अमोलक रत्न गमाना योग्य नहीं है ॥१४७॥ 
(क्रमशः)

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