शुक्रवार, 10 मई 2013

= भेष का अंग १४ =(१६/१८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= भेष का अंग १४ =*
*दादू स्वांगी सब संसार है, साधू विरला कोइ ।*
*जैसे चन्दन बावना, वन वन कहीं न होइ ॥१६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सारा संसार स्वांगी है अर्थात् स्वांग धारण करने वाला है । इन स्वांगियों में साधु कोई बिरले पुरुष ही हैं । साधन - सम्पन्न पुरुष का नाम साधु है । जैसे मलियागिरि चन्दन सभी वनों में नहीं पाया जाता है, कहीं शीतल प्रदेशों में मिलता है । और तो नाना प्रकार के वृक्ष जंगल में होते हैं, परन्तु चन्दन का होना कठिन है । जिस जगह चन्दन होगा, उस सम्पूर्ण जंगल में चन्दन की महक अर्थात् सुगन्ध व्याप्त रहती है, इसी प्रकार जहाँ मुक्त - पुरुष निवास करते हैं, उनके आस - पास के वृक्ष रूपी पुरुषों में भी उनके गुण शीतलता, सुगन्धि युक्त, ज्ञान, भक्ति, आदि देखने में आते हैं, परन्तु बांस, आक, अरन्ड जैसे श्रद्धा रहित पामर लोगों में वह सुगन्धि नहीं रुकती है अर्थात् वह उन चन्दन रूप महापुरुषों के गुणों को नहीं ग्रहण करते ॥१६॥ 
*दादू स्वांगी सब संसार है, साधू कोई एक ।* 
*हीरा दूर दिशन्तरा, कंकर और अनेक ॥१७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सारा संसार स्वांग बनाने वाला है, उन स्वांगियों में साधु कहिए सज्जन, दैवी सम्पदा के गुणों युक्त कोई एक आध देखने में आता है । हीरा जो है, वह दूर देशों में अर्थात् समुद्र की खाड़ी के पास खानों में भाग्य से प्राप्त होता है । चिकने पत्थर अनेकों मिल जाते हैं, परन्तु जो काम हीरे का होता है, वह उन पत्थरों से सिद्ध नहीं होता ॥१७॥
*दादू स्वांगी सब संसार है, साधू सोध सुजाण ।* 
*पारस परदेशों भया, दादू बहुत पषाण ॥१८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसार में स्वांगी, भेषधारी बहुत हैं, परन्तु उनसे इस लोक और परलोक का कोई काम सिद्ध नहीं होता । इसलिए हे सुजान ! इन स्वांगियों में सच्चे साधु को विचारपूर्वक ढूंढ । क्योंकि पारस दूर देशों में कहीं भाग्य से प्राप्त होता है और काले पत्थर के टुकड़े बहुत मिल जाते हैं, परन्तु वे कंचन नहीं बना सकते । पारस लोहे को कंचन बना देता है जिससे दरिद्रता नष्ट हो जाती है । और भी पारस के बहुत गुण होते हैं । ऐसे ही पारस रूप जो मुक्त - पुरुष हैं, वे साधक को अपने सदृश ही बना लेते है । जैसे उत्तम पारस से, पारस ही बन जाता है, ऐसे ही ब्रह्मवेत्ताओं के संग से ब्रह्म स्वरूप ही हो जाता है ॥१८॥ 
(क्रमशः)

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