॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*= भेष का अंग १४ =*
.
*दादू स्वांगी सब संसार है, साधु समन्दां पार ।*
*अनल पंखी कहँ पाइये, पंखी कोटि हजार ॥१९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! स्वांगी लोग संसार में ही रत्त रहते हैं, किन्तु सच्चे संतजन संसार - समुद्र से मुक्त हो गये है । अनिल पक्षी का प्राप्त होना कठिन है, क्योंकि वह आकाश में विचरता है, ऐसे ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष भी ब्रह्मी अवस्था रूप ऊंची दिशा में गमन करते हैं । और पक्षियों की तरह भेषधारी तो बहुत मिलते हैं, परन्तु उनसे साधक पुरुषों का उद्धार नहीं होता है ॥१९॥
.
*दादू चन्दन वन नहीं, शूरन के दल नांहि ।*
*सकल समन्द हीरा नहीं, त्यों साधू जग मांहि ॥२०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! चन्दन के वन नहीं मिलते हैं, ऐसे ही सम्पूर्ण सेना शूरवीर नहीं होती है और सारे समुद्र में हीरे नहीं मिलते, ऐसे ही सम्पूर्ण संसार में सारे ही भेषधारी साधु नहीं होते हैं । किसी वन में ही चंदन मिलता हैं, ऐसे ही सेना में कोई - कोई शूरवीर होता है । जिस प्रकार समुद्र में हीरा होता है, इसी प्रकार भेषधारियों में कोई साधु भी मिलता है ॥२०॥
शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे ।
साधवो नहिं सर्वत्र, चन्दनं न वने वने ॥
.
*जे सांई का ह्वै रहै, सांई तिसका होइ ।*
*दादू दूजी बात सब, भेष न पावै कोइ ॥२१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो संत भक्त अपने अनात्म - अहंकार को परमेश्वर के अर्पण करके अनन्य भाव से परमेश्वर की भक्ति करके परमेश्वर के बन गये हैं, वे अन्तर्यामी परमेश्वर उन भक्तों का निज स्वरूप होकर ही उनको भान होने लगता है । केवल भेष धारण करने से ही प्रभु की प्राप्ति नहीं होती ॥२१॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें