॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= भेष का अंग १४ =*
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*दादू भेष बहुत संसार में, हरिजन विरला कोइ ।*
*हरिजन राता राम सौं, दादू एकै होइ ॥१३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसार में भेषधारी, मत - मतान्तरों वाले अधिक हैं और सच्चे प्रभु के प्यारे संत भक्त बहुत कम हैं । राम के स्मरण में रत्त रहने वाले पुरुष ही ब्रह्मरूप होते हैं । ऐसे संत भक्त सब एक ही रूप है । उनमें भेष और जातित्व, ऊंच - नीच का भेद भाव नहीं होता है । वे सबमें अन्तर्यामी परमात्मा का ही दर्शन करते हैं ॥१३॥
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*हीरे रीझै जौहरी, खल रीझै संसार ।*
*स्वांगी साधु बहु अन्तरा, दादू सत्य विचार ॥१४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! हीरे को देखकर जौहरी प्रसन्न होता है और जान लेता है कि आज मेरी दरिद्रता दूर हो गई और चिकने पत्थर को देखकर संसारी पुरुष रीझते हैं । इसी प्रकार तत्त्ववेता पुरुष अद्वैत नाम - स्मरण रूप हीरे पर रीझते हैं और विषयी, पामर, सांसारिक मनुष्य, नाम रूप संसार पर रीझते हैं । सतगुरुदेव कहते हैं कि हे साधक ! भेषधारी, साम्प्रदायिक लोग, मतवादी, मत - मतान्तरों में फँसे हुए और मुक्त - ब्रह्मवेत्ता संत में बहुत अन्तर है । यह हमारा सत्य विचार है । अतः सत्य - स्वरूप ब्रह्म का ही विचार करो ॥१४॥
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*स्वांगी साधु बहु अन्तरा, जेता धरणी आकाश ।*
*साधु राता राम सौं, स्वांगी जगत की आश ॥१५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! भेषधारी साम्प्रदायिक लोगों में और निष्पक्ष ब्रह्मवेत्ता पुरुषों में बहुत फर्क है । अर्थात् स्वांगी कहिये, साम्प्रदायिक लोग तो धरती रूप आपा - अभिमान - कठोरता आदि दुर्गुणों युक्त होते हैं और तत्वेत्ता मुक्त - पुरुष आकाश की भाँति निर्मल और स्वच्छ रहते हैं और सबको अवकाश देते हैं अर्थात् अपने आप में सबको समाये रखते हैं । हे साधक ! मुक्त - पुरुष तो सदैव निर्गुण राम में राते=रत्त और माते=मस्त रहते हैं और स्वांगी भेषधारी नाना प्रकार की वासना और विकारों में लिपे हुए जगत की आश लगाकर दर - दर भटकते रहते हैं ॥१५॥
(क्रमशः)
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