॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= भेष का अंग १४ =*
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*दादू स्वांग सगाई कुछ नहीं, राम सगाई साच ।*
*साधू नाता नाम का, दूजै अंग न राच ॥२२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो भेष से ही नाता जोड़े वह नाता कुछ नहीं, उनका जीवन निष्फल है । सच्चे संतजन राम से अनन्य होकर रहते हैं, वे ही अविनाशी स्वरूप होते हैं । इसलिये साधक पुरुषों को राम - नाम के स्मरण से ही नाता जोड़ना चाहिये । माया और माया के कार्य संसार के रंग में आसक्त नहीं होना चाहिये ॥२२॥
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*दादू एकै आत्मा, साहिब है सब मांहि ।*
*साहिब के नाते मिले, भेष पंथ के नांहि ॥२३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! आत्म - दृष्टि से सम्पूर्ण शरीरों में सब जीव एक ही रूप है, क्योंकि सबमें एक ही परमेश्वर साक्षीरूप से निवास करता है । इसलिये सम्पूर्ण प्राणीमात्र से प्रेम का व्यवहार बरतिये । स्वांग के सम्बन्ध से किसी से भी व्यवहार नहीं करना चाहिए ॥२३॥
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*दादू माला तिलक सौं कुछ नहीं, काहू सेती काम ।*
*अन्तर मेरे एक है, अहनिशि उसका नाम ॥२४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे ब्रह्मवेत्ता संतों को माला - तिलक, अन्य साम्प्रदायिक चिन्ह, देवी - देवता, इनसे कोई मतलब नहीं रहता है । वह तो केवल ब्रह्मी अवस्था में ही मस्त रहते हैं । भेषधारी लोग संसार में ही आसक्त रहते हैं ॥२४॥
तुलसी माला तिलक बनाय कर, भक्ति न आई हाथ ।
दाढी मूंछ मुंडाय कर, चला दुनी के साथ ॥
दाढी मूँछ मुँडाय कर, हुआ जो घोटम घोट ।
मन को क्यूँ नहीं मूंडिये, जा में भरिया खोट ॥
(क्रमशः)
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