शनिवार, 11 मई 2013

= भेष का अंग १४ =(२५/२७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= भेष का अंग १४ =*
*अमिट पाप प्रचण्ड*
*भक्त भेख धरि मिथ्या बोलै, निंदा पर अपवाद ।* 
*साचे को झूठा कहै, लागै बहु अपराध ॥२५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो भक्त का भेष धारण करके झूठ बोलता है, निन्दा करता है, दूसरों का अपमान करता है, सच्चे पुरुषों को झूठा बतलाता है, उस पुरुष को, ‘भारी अपराध’ कहिए - अमिट पाप लगता है अर्थात् उसका फल जन्म - जन्मान्तरों में वह दुःख भोगता रहता है ॥२५॥ 
जोगी हो पर निंदा झखै । 
मद मांस भांग जू भखै ॥ 
इकोतर सौ पुरुष नरक हि जाइ । 
भाषत श्री गोरख राइ ॥ 
*दादू कबहूँ कोई जनि मिलै, भक्त भेष सौं जाइ ।* 
*जीव जन्म का नाश है, कहैं अमृत, विष खाइ ॥२६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ऐसे नकली भक्त और भेषधारी साधुओं से जाकर नहीं मिलना, क्योंकि वे कहते तो अमृत हैं, परन्तु स्वयं हलाहल विष को खाते हैं । अर्थात् संसार के नाना प्रकार की भोग - वासनाओं का उपभोग करते हैं । उनसे साधक का कल्याण होना असम्भव है ॥२६॥ 
दो दो बात न बनी अयाना । 
इन्द्री पोष और बैकुण्ठ जाना ॥ 
*चित्त कपटी* 
*दादू पहुँचे पूत बटाऊ होइ कर, नट ज्यों काछा भेख ।* 
*खबर न पाई खोज की, हमको मिल्या अलेख ॥२७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! भेषधारी साधुजन, राम के पूत साधु नाम धराकर, वे क पूत नट की भांति, भेष बाना बनाकर बटाऊ विरक्त होकर ग्राम - ग्राम में भरमते हैं और परमेश्‍वर के खोज कहिए - ज्ञान, भक्ति, वैराग्य को तो कभी जानते ही नहीं हैं । लोगों को बहकाते हैं कि हमको तो ‘अलेख’ कहिए परमेश्‍वर सदा ही प्राप्त है ॥२७॥ 
शार्दूल को स्वांग कर, कूकर की कर्तूति । 
तुलसी तापै चाहई, कीरति विजै विभूति ॥ 
तन को योगी सब करै, मन को करै न कोइ । 
जो योगी मन को करै, तो सब सिद्ध कारज होइ ॥ 
(क्रमशः)

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