॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*= भेष का अंग १४ =*
.
*दादू भांडा भर धर वस्तु सौं, ज्यों महँगे मोल बिकाइ ।*
*खाली भांडा वस्तु बिन, कौड़ी बदले जाइ ॥७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे बर्तन वस्तु से भर कर रखे, तो वह मिट्टी का भांडा भी महंगे मोल से वस्तु के साथ बिक जाता है और खाली मिट्टी का घड़ा कौड़ियों में आ जाता है । दार्ष्टान्त में, शरीर रूपी बर्तन राम - नाम वस्तु से भरा हुआ या ज्ञान, ध्यान, भक्ति वैराग्य, आदि वस्तु से पूर्ण होवे, वह शरीर संसार में अर्थात् जन - समुदाय में महंगे मोल कहिए, तन, मन, धन वाणी अर्पण करके भी लोग उसको अपनाते हैं और बिना वस्तु के जन - समुदाय में उसका कोई महत्त्व नहीं हैं ॥७॥
.
*दादू कनक कलश विष सौं भर्या, सो आवै किस काम ।*
*सो धन कूटा चाम का, जामें अमृत राम ॥८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सोने का कलश है और उसमें संखिया अर्थात् जहर भरा है, वह जन - समुदाय के उपयोग में तो नहीं आ सकता है और जो कूटा हुआ चमड़े का कुप्पा है, उसमें अमृत भरा हो, उसे धन्य है । उसमें से जो भी अमृत - पान करेगा, वही अमर हो जायेगा । इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि के घर में जन्म लेना ही सोने के कलश के समान है, परन्तु उसमें विषय - वासनारूपी अथवा पापरूपी जहर भरा है, तो वह जन्म किस काम का ? जनसमुदाय का कल्याण तो नहीं कर सकता है । जो चमड़े के काम क रने वाले चमार आदि हरिजनों के कुल में जन्म लेकर, भक्ति अमृत एवं जन समुदाय की सेवा रूपी अमृत का भाव जिसमें भरा है, उसको धन्य है, वही ईश्वर का सच्चा भक्त है । उसी से राष्ट्र का कल्याण होगा ॥८॥
मनहर
कनक के कलश में भर्यो है गरल महा,
कौन काम आवै वह, राखै नहीं पास जू ।
भलो वह चाम को जु राखै घृत जाकै माहिं ।
राम नाम लेत नित भगत रैदास जू ॥
त्याग कर विप्रन कूं लगी है चरण गंग,
जै जै कार जंग बीच भयो है प्रकास जू ।
जनेऊ दिखाई निज देह पर रायदास,
द्विज सब शिष्य भये, कहै हरिदास जू ॥
.
*दादू देखे वस्तु को, बासन देखे नांहि ।*
*दादू भीतर भर धर्या, सो मेरे मन मांहि ॥९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! तत्त्ववेत्ता पुरुष तो वस्तु को देखते हैं, ‘बासन’ कहिए बर्तन अर्थात् वर्ण आश्रम के शरीर को नहीं देखते । जिस शरीर में ब्रह्मानन्द रूपी वस्तु भरी है, उसी को हम कहिये, विवेकी पुरुष आदर और सम्मान देते हैं । वह भक्त और जनसमुदाय की सेवा करने वाला सेवक हमारे मन में बसता है । वही परमेश्वर को प्रिय है ॥९॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें