बुधवार, 8 मई 2013

= भेष का अंग १४ =(४/६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= भेष का अंग १४ =*
*ज्ञानी पंडित बहुत हैं, दाता शूर अनेक ।* 
*दादू भेष अनन्त हैं, लाग रह्या सो एक ॥४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! दिखावे के ज्ञानी, बराये नाम पंडित, तमोगुणी या रजोगुणी दाता, शूर कहिये घर में शूरवीर, ऐसे अनेकों हैं । इसी प्रकार स्वांग - धारियों का तो कोई पार ही नहीं है, परन्तु निष्काम भाव से प्रभु का पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले भेषधारी मुक्तजन, तो कोई बिरले ही होते हैं । अपनी - अपनी भावनानुसार भक्तों के चिन्ह तो अनेक बनाते हैं, किन्तु उपास्य देव अद्वैत ब्रह्म तो, एक रस सजातीय विजातीय स्वगत - भेद रहित, एक ही है ॥४॥ 
*आत्मार्थी इंद्रियार्थी भेष* 
*कोरा कलश अवाह का, ऊपरि चित्र अनेक ।* 
*क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष ॥५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कुम्हार की भट्टी का कोरा घड़ा अनेक चित्रदार भी हो, किन्तु वस्तु बिना व्यर्थ है । इसी प्रकार भक्ति रूप वस्तु के बिना केवल भेष बाना धारण किये हुए देखने मात्र के ही हैं । उनसे न तो स्वयं का कल्याण होता है और न जन - समुदाय का ही कुछ कल्याण करते हैं । वे केवल भार रूप ही हैं ॥५॥ 
भगत भेष देखत भले, भजन बीज उर नाहिं । 
ऐरा केरी बाल ज्यूं कणक नहीं तिन माहिं ॥ 
*बाहर दादू भेष बिन, भीतर वस्तु अगाध ।* 
*सो ले हिरदै राखिये, दादू सन्मुख साध ॥६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! शरीर तो जिनका भेष आदि चिन्ह से रहित है और भीतर अन्तःकरण ज्ञान, भक्ति, वैराग्य से परिपूर्ण है अर्थात् प्रभु की लय में मन स्थिर हो रहा है । ऐसे मुक्त - पुरुषों की आज्ञा में कहिए, उनके उपदेश में, साधक पुरुषों को स्थिर रहना चाहिए । तब ही उनका कल्याण है ॥६॥ 
(क्रमशः)

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