गुरुवार, 9 मई 2013

= भेष का अंग १४ =(१०/१२)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= भेष का अंग १४ =*
*दादू जे तूं समझै तो कहूँ, सांचा एक अलेख ।*
*डाल पान तज मूल गह, क्या दिखलावै भेख ॥१०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यदि यथार्थ में आत्म - स्वरूप का बोध चाहते हो तो, डाल - पान रूप बहिरंग साधन और सकाम कर्म, इन सबको छोड़कर केवल कारण ब्रह्म की ही उपासना करिये, क्योंकि वह सम्पूर्ण शरीरों में अर्न्तयामी रूप से स्थिर हो रहे हैं । उसी को स्थावर जंगम सृष्टि में व्याप्त रूप से देखो । बाहरी आडम्बर क्या दिखलाते हो? वह ब्रह्म सत्य, अद्वैत और अलेख है, श्रद्धा से उसी का स्मरण करो ॥१०॥ 
*दादू सब दिखलावैं आपको, नाना भेष बनाइ ।* 
*जहँ आपा मेटन, हरि भजन, तिहिं दिशि कोइ न जाइ ॥११॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अज्ञानीजन अपने अंग पर नाना प्रकार का भेष, बाना धारण करके और जन - समुदाय के सामने अपनी मान प्रतिष्ठा कराने के लिये तत्पर रहते हैं । जहाँ यह अनात्मा शरीर का, जाति - पाँति का, भेष - बाने का, लेशमात्र भी नहीं है और वही हरि की भक्ति का सच्चा मार्ग है, उस रास्ते पर तो कोई भी नहीं जाते हैं ॥११॥ 
*सो दशा कतहूँ रही, जिहिं दिश पहुँचे साध ।* 
*मैं तैं मूरख गहि रहे, लोभ बड़ाई वाद ॥१२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो सच्चे संत जीवन - मुक्त, पक्षपात रहित ब्रह्मभाव को प्राप्त हो गये हैं, उस अवस्था को नकली भेषधारी, खींचातानी वाले साधु नहीं पहुँच पाते, क्योंकि वे तो साम्प्रदायिक आडम्बर दिखाने में; लोभ, बड़ाई, मान प्रतिष्ठा आदि में ही, आसक्त रहते हैं ॥१२॥ 
(क्रमशः)

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