॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= साँच का अंग १३ =*
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*कहै दादू जन जो कृत धारै, भलो बुरो फल ताही लारै ।*
*झूठा परगट साचा छानै, तिन की दादू राम न मानै ॥१५१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! लोक दिखावे में करने वाले संसारीजनों की सेवा को परमेश्वर स्वीकार नहीं करते हैं । परमेश्वर के यहाँ सच्चे पुरुषों की सेवा स्वीकार होती है ॥१५१॥
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*कहँ आशिक अल्लाह के, मारे अपने हाथ ।*
*कहँ आलम औजूद सौं, कहै जुबां की बात ॥१५२॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कहाँ तो भगवान् के प्यारे भक्त, जो अपने हेतरूपी हाथों से मन के गुण - विकारों को मारकर परमेश्वर में रत्त रहते हैं और कहाँ देह अध्यासी संसारीजन हैं, जो वाणी से तो ब्रह्मज्ञान की बातें करते हैं, परन्तु मन इन्द्रियां जिनकी संसार के विषय - वासनाओं में रत्त रहती हैं । ऐसे वाचक ज्ञानी - भक्तों के लिये परमेश्वर की प्राप्ति होना असम्भव है ॥१५२॥
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*दादू पाखंड पीव न पाइये, जे अंतर साच न होइ ।*
*ऊपर थैं क्यूं ही रहो, भीतर के मल धोइ ॥१५३॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कायिक वाचिक पाखंड से मुखप्रीति का विषय जो परमेश्वर है, उसकी प्राप्ति नहीं होती है । परमेश्वर को अन्तःकरण की सत्यता से ही प्राप्त होता है । ऊपर से चाहे किसी प्रकार का व्यवहार करे, परन्तु परमेश्वर की प्राप्ति चाहने वाला मुमुक्षु भीतर के अर्थात् हृदय के मल - विक्षेप आदि दोषों को धोवे ॥१५३॥
(क्रमशः)
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