शुक्रवार, 3 मई 2013

= साँच का अंग १३ =(१५४/१५६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥

*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*साच अमर जुग जुग रहै, दादू विरला कोइ ।*
*झूठ बहुत संसार में, उत्पत्ति परलै होइ ॥१५४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस संसार में सच्चे पुरुष, युग - युग में अमरभाव को प्राप्त होते हैं, परन्तु ऐसे कोई बिरले ही पुरुष हैं । परमेश्‍वर से झूठे संसार में बहुत हैं । वे पुनः - पुनः जन्म मृत्यु को प्राप्त होते रहते हैं । उनका जन्म - मरण आदि क्लेश कभी नहीं छूटता ॥१५४॥ 
*दादू झूठा बदलिये, साच न बदल्या जाइ ।* 
*साचा सिर पर राखिये, साध कहै समझाइ ॥१५५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! झूठा कहिए माया और माया का कार्य, यह संसार परिवर्तनशील है, इसका अधिष्ठान चैतन्य परमेश्‍वर अपरिवर्तनशील है अर्थात् सत्य है, एक रस है । ऐसे सत्य - स्वरूप परमेश्‍वर को अपने मस्तक पर धारण करिये । इस प्रकार मुक्त - पुरुष साधकों को परमेश्‍वर रूपी तत्त्व समझाकर कहते हैं ॥१५५॥ 
*साच न सूझै जब लगै, तब लग लोचन अंध ।* 
*दादू मुक्ता छाड़ कर, गल में घाल्या फंद ॥१५६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब तक सत्य - स्वरूप परमात्मा अन्तर विवेक - वैराग्य रूपी नेत्रों से नहीं दिखाई पड़ता है, तब तक जानो कि यह जीवात्मा ज्ञान - विचाररूपी नेत्रों से हीन ही है और हे साधक ! तब तक ‘मुक्ता’ कहिए - माया विकारों से रहित, शुद्ध निरंजन निराकार रूप परमेश्‍वर है, उसको त्याग कर यह साधक अपने गले में अज्ञान रूपी फाँसी डाले हुए रहता है । इससे मुक्त नहीं हो पाता ॥१५६॥ 
(क्रमशः)

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