बुधवार, 22 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(३९/४१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*= साधु का अंग १५ =*
*साध बेपरवाही*
*दादू चन्दन कद कह्या, अपना प्रेम प्रकाश ।* 
*दह दिशि प्रगट ह्वै रह्या, शीतल गंध सुवास ॥३९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! चन्दन किसी को कब कहता है कि मेरे में शीतलता और सुगन्धि है, परन्तु अपने गुण से स्वतः ही प्रकट हो रहा है । इसी प्रकार ब्रह्मवेत्ता संत, ब्रह्म प्रकाश से वे संसार में स्वयं ही प्रकाशित हो रहे हैं ॥३९॥
जन चंदन भृंग ना कही, नर, वन, लट पलटाइ । 
‘जगन’ जगत में गुणीयों, बिन ही कहे प्रगटाइ ॥ 
*दादू पारस कद कह्या, मुझ थीं कं चन होइ ।* 
*पारस परगट ह्वै रह्या, साच कहै सब कोइ ॥४०॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! पारस किसी को कब कहता है कि मैं सोना बनाता हूँ । परन्तु संसार में अपने गुणों से, पारस स्वतः ही प्रकट हो रहा है । सब कोई संसार में कहते हैं कि पारस से सोना बनता है । यह बात सत्य है । इसी प्रकार ब्रह्मवेत्ताओं की संगति से उत्तम जिज्ञासु ब्रह्मरूप हो जाता है ॥४०॥ 
*नरबिड़ रूप हठीजन* 
*तन नहिं भूला, मन नहिं भूला, पंच न भूला प्राण ।* 
*साधु सबद क्यूँ भूलिये, रे मन मूढ अजाण ॥४१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मन का उदाहरण देकर अज्ञानी, संसारी, बहिर्मुख जीवों को उपदेश करते हैं कि हे अजान ! शरीर अध्यास को और मन के विषय - मनोरथों को और ज्ञान इन्द्रियों के पंच विषय, इन सबको भूलना था, यह तो तुम भूले नहीं और न भूलने योग्य जो संतों के ज्ञान - संयुक्त शब्द थे सो भूल रहा है, इसलिये तू अति मूढ़ माया में अन्धा हो रहा है ॥४१॥ 
वस्तु भूलनि जोग थी, सो तो चित्त बसाइ । 
निर्मल बाइक हरि भगति, मन सठ दई नशाइ ॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें