॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= साधु का अंग १५ =*
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*दादू नेड़ा दूर तैं, अविगत का आराध ।*
*मनसा वाचा कर्मणा, दादू(साधु) संगति साध ॥३६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सर्व जीवों के भीतर ब्रह्म व्यापक है, परन्तु अज्ञानी को दूर लोक - लोकान्तरों में भासता है । जब ब्रह्मवेत्ता संतों का उपदेश श्रवण में आता है, तब “नेड़ा” कहिए - आत्मरूप से ही अनुभव होता है । अतः तन मन वचन से संतों की संगति में रहो ॥३६॥
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*स्रग न शीतल होइ मन, चन्द न चन्दन पास ।*
*शीतल संगति साधु की, कीजे दादू दास ॥३७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह विषयासक्त मन गुलाब, चमेली आदि की स्रग, कहिए माला पहनकर भी “शीतल” कहिए विषयों से मुक्त नहीं होता है, और चन्दन के पास जाकर सर्प शीतल हो जाता है, अर्थात् जहर की तपन शान्त होती है । परन्तु यह मन चन्दन के पास भी शीतल नहीं होता है । अपने स्वामी चन्द्रमा की शरत् ज्योत्स्ना में तो मन की कामाग्नि शांत होने की बजाय और भी उत्तेजित हो उठती है । इसलिये हे जिज्ञासुओं ! मन को अन्तर्मुख और शान्त करना है तो सच्चे ब्रह्मनिष्ठ संतों की संगति करो ॥३७॥ .
*दादू शीतल जल नहीं, हिम नहिं शीतल होइ ।*
*दादू शीतल संत जन, राम सनेही सोइ ॥३८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह मन जल से शीतल नहीं होता और बर्फ से भी यह शीतलता नहीं पाता, इस लिये इस मन को शीतल करना है, शान्त करना है तो राम के स्नेही जो प्रेमी संतजन हैं, उनकी संगति में लगाओ ।
नहिं सीतलता साधु बिन, ससि मलियागिरि नीर ।
मिटै न हिम हरिनाम बिना, ‘जैमल’ जलन सरीर ॥
(क्रमशः)
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