बुधवार, 22 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(४२/४४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*साधु महिमा*
*रत्न पदारथ माणिक मोती, हीरों का दरिया ।* 
*चिंतामणि चित रामधन, घट अमृत भरिया ॥४२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे रत्नाकर समुद्र में हीरे, पन्ने, मोती होते हैं, वैसे ही ब्रह्मवेत्ता संतों की ब्रह्माकार वृत्ति से उनकी शारीरिक सम्पूर्ण सौंज, रत्न, माणिक, मोती, हीरों के समान है । उनके घट में ब्रह्मानन्द रूप अमृत भरा है ॥४२॥ 
*समर्थ शूरा साधु सो, मन मस्तक धरिया ।* 
*दादू दर्शन देखतां, सब कारज सरिया ॥४३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे और समर्थ ज्ञान - ध्यान में पूरे और मन इन्द्रियों के जीतने में शूरवीर सन्त, जिज्ञासुजनों को संसार से पार करने में समर्थ हैं । उनके चरणों में अपने अहंकार रूपी मस्तक को मन के सहित नम्र करिये तब इस लोक और परलोक के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, चारों पदार्थ प्राप्त होते हैं । संतों के शब्दों के धारण से आसुरी गुणों को जीतने में समर्थ होता है ॥४३॥ 
*साधु महिमा महात्म* 
*धरती अम्बर रात दिन, रवि शशि नावैं शीश ।* 
*दादू बलि बलि वारणें, जे सुमिरैं जगदीश ॥४४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो सच्चे संत, मुक्त - जन ब्रह्मभाव में ही लीन रहते हैं, उनके चरणों में धरती, आसमान, पानी, पवन, चन्द्रमा, सूर्य, रात, दिन सब नमस्कार के सहित सेवा करते हैं । ऐसे संतों को बारम्बार वन्दना है ॥४४॥ 
बनवारी रामत करत, शिष्य परमानन्द साथ । 
रैन बसे तकियो दियो, पृथ्वी अपने हाथ ॥ 
दृष्टान्त ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल जी महाराज के शिष्य बनवारीदास जी, रतिया निवासी, अपने शिष्य परमानन्द को साथ लेकर सेवकों मे रामत करने जा रहे थे । मार्ग में दिन अस्त हो गया । वहीं ठहर गये । परमानन्द जी ने गुरु महाराज का आसन जंगल में ही लगा दिया, जल लाकर रख दिया । जब शयन(निद्रा) करने का समय हुआ, तब गुरुजी आसन पर लेट गये । 
वृद्ध शरीर होने के कारण तकिया न होने से शरीर को तकलीफ होने लगी । पृथ्वी माता ने देखा कि यह परमेश्‍वर के प्यारे संत हैं, तकिया लेकर अपने हाथ से उनका सिर उठाकर सिर के नीचे लगा दिया । महाराज बोले ~ माता जी, आप कौन हो ? पृथ्वी माता बोली ~ “मैं पृथ्वी हूँ । हम सबको भगवान् की आज्ञा है कि मेरे भक्तों की सेवा करें । आपका कष्ट देखकर मैं प्रकट हुई हूँ ।” बनवारीदास जी ने माता को नमस्कार किया और प्रभु का स्मरण करने लगे । 
(क्रमशः)

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