सोमवार, 6 मई 2013

= साँच का अंग १३ =(१७५/१७७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*अद्वैत निरूपण*
*जे पहुँचे ते कह गए, तिनकी एकै बात ।* 
*सबै सयाने एक मत, उनकी एकै जात ॥१७५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिन मुक्त पुरुषों में स्वस्वरूप साक्षात्कार किया है, उन सब की ब्रह्म - निर्णय रूप एक ही वार्ता है और ब्रह्म ही जिनका मत है, चैतन्य ही एक जाति है ॥१७५॥ 
दूध मंगायो बीरबल, कुण्ड भरायो रात । 
रैन सकल जन जल भर्यो, लख्यो पातसाह प्रात ॥ 
दृष्टान्त ~ एक रोज बादशाह बीरबल को बोले ~ “बीरबल मूर्ख कौन होते हैं ? ” बीरबल ~ “जो चतुर हैं, वे ही मूर्ख होते हैं ।” बादशाह ~ “कैसे ?” “हुजूर, दिल्ली में जितने चतुर हैं, सबको बुलाइये ।” 
सब चतुर आये । उन चतुरों में सौ चतुर प्रधान निकले । बादशाह ने हुक्म दिया, “हमारे बगीचे में जो कुण्ड है, उसमें सब एक - एक घड़ा दूध का लाकर रात को डालना ।” यह सुनकर सब चले गये । अपने - अपने घर जाकर प्रत्येक ने विचार किया कि “निन्यानवे घड़े जब दूध के डलेंगे और मैं एक पानी का घड़ा डाल आऊं, तो क्या पता लगेगा ?” 
प्रत्येक चतुर का यही विचार हो गया । पानी का घड़ा लिया और कुंड में डालकर चला आया । इसी प्रकार सौ के सौ ही पानी भर गये । प्रातःकाल बादशाह ने बीरबल के साथ आकर कुंड में देखा तो पानी भरा है । बादशाह ~ “बीरबल, यह क्या ?” बोला ~ “देखलो हुजूर, यह चतुरों की चतुरता । आपने तो हुकम दिया दूध का और वे पानी भर गये ।” 
सौ के सौ चतुरों को कुंड पर बुलाया । बादशाह ~ “यह तुमने क्या किया ?” तब सब एक दूसरे के मुँह की तरफ देखने लगे और बोले ~ “हुजूर ! हमारी चतुरता पर मूर्खता का पत्थर गिर गया । उपरोक्त जो एक ही विचार सबका बन गया था, सबने वही कह दिया ।” बादशाह ~ “बीरबल ठीक है । जो चतुर है, वही मूर्ख होता है ।” 
सतगुरु महाराज कहते हैं कि “सबै सयाने एक मत” । 
*जे पहुँचे तेहि पूछिये, तिनकी एकै बात ।*
*सब साधों का एक मत, ये बिच के बारह बाट ॥१७६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सभी मुक्त पुरुषों का एक ही सिद्धान्त है, एक ही लक्ष्य है, परन्तु “बिच के” कहिए - मत - मतान्तरों के पक्षपाती, परमेश्‍वर से विमुखी, अज्ञानी, बहिरंग साधनों में ही लगे रहते हैं । वे इन्द्रियों के विषयों की आसक्ति में ही रचे रहते हैं । 
सब समझ्यों का एक मत, अनसमझ्यों का और । 
‘रामदास’ घट अरहट की, पड़सी एकै ठौर ॥ 
*सबै सयाने कह गये, पहुँचे का घर एक ।* 
*दादू मार्ग माहिं ले,तिन की बात अनेक ॥१७७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सभी मुक्त - पुरुषों का यही आत्म अनुभव है कि ब्रह्म पद अद्वैत ही है, परन्तु साधन अवस्था में चलने वाले, उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ भेद से नाना साधन हैं एवं “मार्ग माहिं ले” कहिए - मायामय संस्कारों के कारण जिसने स्वस्वरूप को नहीं पहचाना है, ऐसे जन योग, यज्ञ, तीर्थ - व्रत, देव - पूजा आदि मायावी साधनों में ही भ्रमते रहते हैं ॥१७७॥
कवित्त 
ब्रह्मा विष्णु महेश शेष शुकदेव विचारी । 
रिषभदेव दत्त कपिल, सांख्य मत के अधिकारी ॥ 
सनकादिक सर्वज्ञ, ज्ञान बल ब्रह्म स्वरूपा । 
नौ जोगेश्‍वर मुक्त, भक्ति जिन करी निरूपा ॥ 
तो नारद ध्रू प्रहलाद से, सन्त अनन्त उधारणा । 
कहै ‘बालकराम’ पहुँचे पुरुष, तिनकी एकै धारणा ॥ 
दोहा - 
अनन्त सु ज्ञानी कोटि को, निश्चै दृढ मत एक । 
एक अज्ञानी के हिये, बरतत मत हि अनेक ॥
(क्रमशः)

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