मंगलवार, 7 मई 2013

= साँच का अंग १३ =(१७८/१८०)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*सूरज साखी भूत है, साच करै परकास ।*
*चोर डरै चोरी करै, रैन तिमिर का नाश ॥१७८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सूर्य जैसे साक्षी - भाव से सारे संसार को प्रकाशमान करता है, परन्तु स्वयं आप किसी के शुभ - अशुभ, कर्म - बन्धन में नहीं बँधता है । इसी प्रकार साक्षी चैतन्य, कूटस्थ ब्रह्म, जीवात्मा को, कहिए आभास बुद्धि को चेतनता प्रदान करता है । और साक्षीभाव से जीव के शुभ - अशुभ संस्कारों का द्रष्टा भी है । किन्तु शुभ - अशुभ कर्म - बन्धन से आप स्वयं मुक्त है और सत्चित् आनन्द स्वरूप है ॥१७८॥ 
दृष्टान्त में, जैसे रात्रि रूप अंधकार के नाश होने पर चोर चोरी कार्य करने से डरता है, वैसे ही जीवात्मा के सूक्ष्म संस्कार ही मानो चोर है, सो ब्रह्म प्रकाश होने पर अविद्या अंधकार के मिट जाने से फिर चोरी कहिए, विषय प्रवृत्ति से डरता है और मुक्त - जनों के पावन संस्कार ब्रह्ममय हो जाते हैं । 
फिर सच्चे सतगुरु के उपदेशों से ब्रह्म प्रकाश होने पर “रैन तिमिर” कहिए - अविद्यारूप रात्रि के भ्रम, कर्म आदि का नाश हो जाता है । फिर चोर - तुल्य मायावी वासना वाले गुरु वाचक पंडित, माता - पिता, स्त्री, आदि ये सब निवृत्ति के सत्य उपदेशों से डरते हैं कि कहीं वैराग्य न हो जाये । 
साधू सूर्य रूप हैं, मेटत तिमिर अज्ञान । 
‘जगन्नाथ’ कर लीजिये, नित्य प्रति उन का ध्यान ॥ 
*चोर न भावै चांदणां, जनि उजियारा होइ ।* 
*सूते का सब धन हरूँ, मुझे न देखै कोइ ॥१७९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! चोर मायामय सूक्ष्म संसार और इन्द्रियों के अर्थ में लगे हुए मन को आत्म - ज्ञान रूप प्रकाश अच्छा नहीं लगता । वह चाहता है कि सूते हुए अज्ञानी जीवात्मा का भक्ति, वैराग्य और नर तन के स्वास आदि अमूल्य धन को चुराने की इच्छा से अविद्या रूप अन्धकार की ही चाहना करता है, अर्थात् अज्ञान ही बना रहे, जिससे अज्ञानी जन माया में ही मोहित रहें और मैं इनका सर्वस्व हरण कर लूँ ॥१७९॥ 
लुब्धानां याचकः शत्रुः, मूर्खाणां बोधको रिपुः । 
जार - स्त्रीणां पतिः शत्रुः, चौराणां चन्द्रमा रिपुः ॥ 
*संस्कार आगम* 
*घट घट दादू कह समझावै,*
*जैसा करै सो तैसा पावै ।* 
*को घट पापी को घट पुण्य,*
*को घट चेतन को घट शून्य ?* 
*को काहू का सीरी नांहीं,*
*साहिब देखे सब घट मांहीं ॥१८०॥* 
इति सांच का अंग सम्पूर्ण ॥ अंग १३॥ साखी १८०॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! अब उपरोक्त सम्पूर्ण कथन का उपसंहार करके, एक साखी से चितावणी का उपदेश करते हैं कि आप अन्तर्यामी प्रभु सर्व प्राणियों के हृदय की जानते हैं । ब्रह्मवेत्ता संतजन पुनः पुनः उपदेश देकर समझाते हैं कि जो जैसा कर्म करेगा, सो वैसा ही फल पावेगा । उत्तम भक्त तो भक्ति द्वारा प्रभु का दर्शन पावेंगे और संसारी अज्ञानीजन परमेश्‍वर से विमुखी संसार - भाव को प्राप्त होंगे । कर्मों के फल में कोई किसी का साझेदार नहीं है । इसलिये सबको निष्काम शुभ कर्म करने चाहिए ॥१८०॥ 
यत् यत् च कुरुते कर्म शुभं वा यदि वाशुभम् । 
पूर्व देहकृतं सर्वं अवश्यं उपभुज्यते ॥ 
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । 
नाऽभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ॥ 
जैसा करै सो, तैसा पावै । 
आपै बीजै आप ही खावै । 
दोस न दीजै काहू लोग । 
जो ही कमावन सोही भोग ॥ 
पूत खसम के सामै आवै, 
जोगी को गुड़ मंडा भावै । 
जो न पतीजे तो कर देखो, 
यामैं रती मीन नहीं मेखो ॥ 
दृष्टान्त १ ~ एक महात्मा गाँव के बाहर तालाब पर रहते थे । उदर - पूर्ति को गाँव से भिक्षा लाया करते थे और उपरोक्त साखी बोलते जाते । एक ईश्‍वर - विमुखी स्त्री थी । उसे महात्मा के ये वचन अच्छे नहीं लगते थे । अतः उसने उन्हें जहर देकर मारने की सोची । उसने सोचा ~ मेरा बेटा और पति तो विदेश में हैं उनके सामने वे कैसे आवेगा, जो मैं देऊंगी, तो ये ही मरेगा । उसने चूरमा का दो लड्डू बनाया जहर का । 
और जब महात्मा की आवाज सुनी, तब वह दोनों लड्डू लेकर दरवाजे में आ गई और महात्मा जी को कहा ~ “लो महाराज, भिक्षा ।” संत लेकर अपने आश्रम पर आ गये । वहाँ पर पहले एक भक्त भोजन लेकर बैठा था । वह बोला ~ “महाराज ! झोली का भोजन तो रहने दो, मेरा पाओ पहले प्रसाद ।” 
महात्मा ने भगवान् के भोग लगाकर उस भक्त का प्रसाद पा लिया । अनायास ही उस दिन उस स्त्री का पति और पुत्र परदेश से आये और पहले महात्मा जी के ही दर्शन किये । महात्मा बोले ~ “भाई ! प्रसाद पाओ । आपके ही घर का है । आज ही माता राम ने झोली दी है ।” 
महात्मा जी की आज्ञा से उस पिता पुत्र ने लड्डुओं का भोजन कर लिया और सो गये, और सूते ही रह गये । शाम को महात्मा ने जगाया, तो देखा, मर गये । वह स्त्री पता होने पर आई और फूट - फूट कर रोने लगी । जब उसको पूछा, तो उस स्त्री ने पूर्वोक्त वृत्तान्त सब सुना दिया । लोगों ने कहा ~ अब अपने कर्म का भोग तू ही भोग । 
दगा किसी का सगा नहीं है, 
किया नहीं तो कर देखो रे भाई । 
चिट्ठी तो भटजी की उतरी, 
नाक कटायो नाई ॥ 
दृष्टान्त २ ~ एक राजा के यहाँ पंडित रोज कथा सुनाने जाता । राजा का नाई पंडित को बोलता ~ “महाराज ! कभी मुझ पर भी दया करना ।” एक दिन ब्राह्मण बोला ~ “अरे ! क्या दया चाहता है ?” नाई ~ “महाराज ! आप ही रोज दो मोहर ले जाते हो, कभी एक मोहर मुझे भी दे दिया करो, मैं भी राजा का नाई हूँ, सेवा करता हूँ ।” ब्राह्मण बोला ~ “इसमें तेरा क्या अधिकार है ? हम कथा करते हैं ।” नाई ~ “अच्छा महाराज ! नाराज नहीं होना ।” 
नाई राजा की मालिश करता - करता हँसने लगा । राजा ~”क्यों हँसता हैं ?” नाई ~ “अन्नदाता ! जो ब्राह्मण कथा करने आता है, वह बोला कि ‘क्या करें भाई नाई ! दो मोहर के लालच से राजा को कथा सुनाते हैं, नहीं हम तो उसका मुख भी न देखें । राजा शराब का प्याला पीकर हमारे सामने बैठता है ।” राजा - “इसमें प्रमाण क्या हैं ?” नाई ~ “हुजूर ! वह कल मुँह के पट्टी बांधकर आवेगा ।” राजा ने कहा ~ “ठीक है ।” 
राजा ने मन में सोचा कि ब्राह्मण को पता है, हमारे बीमारी लगी है और डाक्टर ने एक शराब का प्याला दवाई रूप में बता रखा है । फिर ब्राह्मण यह बात कैसे बोला ? रात को नाई ब्राह्मण के घर पहुँचा और चरणों में नमस्कार करके बोला ~ “महाराज ! राजा साहब का संदेश लेकर आया हूँ । “क्या ?” 
राजा साहब बोले हैं कि हम थोड़ी शराब लेते हैं, फिर कथा सुनने बैठते हैं । ब्राह्मण को जरूर हमारे मुख के अणु स्पर्श करते होंगे । तू जाकर बोलना कि राजा साहब को यह विचार हुआ है । सो आप अपने मुँह के पट्टी लगाकर कथा बांचने आवें ।” ब्राह्मण ~ “भाई ! वह तो अन्नदाता हैं और वह शराबी नहीं हैं । उनके बीमारी है, वे दवारूप में लेते हैं ।” नाई ~ “नहीं महाराज ! राजा की आज्ञा जरूर मानना, क्योंकि आपने सुना होगा ~ 
राजा जोगी अग्नि जल, इनकी उलटी रीत । 
डरते रहिये ‘परसराम’, थोड़ी पालैं प्रीत ॥ 
महाराज कभी दूसरे को कथा बांचने बुलवा लें तो, आपकी रोजी बन्द हो जाएगी । इसलिए राजा की आज्ञा मानना ही ठीक है । सुनो ~ 
राजा जोगी अग्नि जल, इनकी सुलटी रीत । 
इनकी आज्ञा में रहै, अधिका पालैं प्रीत ॥” 
ब्राह्मण बोले ~ “अच्छा भाई ! फिर मैं ऐसा ही करके आऊँगा ।” नाई मन में बहुत खुश हुआ और सोचा कि ब्राह्मण की रांत काट दी । सवेरे ब्राह्मण मुँह के पट्टी बांधकर कथा करने चला । नाई देखते ही खुश हो गया । राजा दूर से ब्राह्मण को देखकर क्रोधित हो गया । ब्राह्मण ने कथा सुनाई और राजा ने एक चिट्ठी लिखकर, लिफे में बन्द करके कथा पर चढ़ा दी, और बोला ~ “खजाने से लेना ।” 
ब्राह्मण चिट्ठी लेकर चलने लगा, नाई ने सामने आकर हाथ जोड़े, “महाराज ! कभी तो दया करो ।” ब्राह्मण ने देखा, यह रोज पीछे पड़ता है, आज की भेंट इसी को दे दें । बोला ~ “यह ले, जा लिया ।” नाई चिट्ठी लेकर खजांची के पास पहुँचा और चिट्ठी दी । खजांची ने खोलकर पढ़ी और बोला ~ “इधर आ ।” नाई ने झट पल्ला पसारा । खजांची ने चक्कू से नाई की नाक काटकर पल्ले में डाल दी । 
नाई बोला ~ “यह क्या ?” बोला ~ “यही लिखा है इसमें कि आते ही नाक काट लेना ।” नाई खून पोंछता हुआ नाक कटाकर घर आ गया । राजा ने नाई का नाक कटा देखा । पूछा ~ “यह क्या हुआ ? तेरा किसने नाक काटा ?” उपरोक्त सब वृत्तान्त नाई ने सुना दिया । राजा हँसने लगा । ब्राह्मण को दूसरे दिन राजा ने चार मोहर दे दी । इति सांच का अंग टीका सहित सम्पूर्ण ॥ अंग १३॥ साखी १८०॥ 
(क्रमशः)

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