सोमवार, 6 मई 2013

= साँच का अंग १३ =(१७२/१७४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साँच का अंग १३ =*
*विरक्तता*
*कबीर बिचारा कह गया, बहुत भांति समझाइ ।* 
*दादू दुनिया बावरी, ताके संग न जाइ ॥१७२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! विचारशील ब्रह्मवेत्ता कबीर साहब आदिक संतों ने जिज्ञासुजनों को अनेकों प्रकार से क्षमा करके यह आत्म - अनुभव प्रकट किया है, परन्तु बहिर्मुख दुनिया परमेश्‍वर से विमुखी है । इसलिये ही जिज्ञासुजनों को संसारीजनों का संग मना किया है, और कबीर जी आदि संतों ने सांसारिक प्राणियों को अनेक प्रकार से समझा करके विवेक कराया, परन्तु अज्ञान में पागल हुई दुनिया सत् वचनों में विश्‍वास नहीं करती । इसीलिये दुःख पाते हैं ॥१७२॥ 
कबीर जेती कथनी मैं कथी, तेती बालू रेत ।
इस संसारी जीव के, नेक न उपज्यो हेत ॥ 
*सूक्ष्म मार्ग* 
*पावैंगे उस ठौर को, लंघैंगे यहु घाट ।* 
*दादू क्या कह बोलिये, अजहुं बिच ही बाट ॥१७३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उस ब्रह्म ठौर को यानी स्वस्वरूप को वही प्राप्त होंगे, जो इस संसार के विषय - वासना रूपी घाट को पार कर जाएँगे । किन्तु “अजहुं बिच ही बाट” कहिए, अभी हम साधन अवस्था में ही क्या कहकर बतलावें कि हम अभी स्वस्वरूप को प्राप्त हो गये । अभी तो माया के प्रभाव से सावधान रहना चाहिये । गुरु कृपा से सब काम सिद्ध होंगे ॥१७३॥ 
कबीर मरेंगे तब कहैंगे, पहुचैंगे उस ठांइ । 
अजहूँ भेरा समंद में, बोल बिगूचै कांइ ॥ 
तपस्वी से वेश्या कहै, जनानी हो कि जवान । 
त्याग्यो तन पूछत भई, मर्द मरद परवान ॥ 
दृष्टान्त ~ एक तपस्वी जी थे । वह प्रवचन किया करते थे । बहुत से श्रोता आते, एक वेश्या भी उनके प्रवचन में आती थी । वेश्या एक रोज बोली ~ आप स्त्री हो कि मर्द ? तपस्वी जी बोले ~ कभी बतायेंगे । एक रोज तपस्वी जी का अन्त समय आ गया, सभी भक्त लोग दर्शन करने आये । वेश्या भी आई और हाथ जोड़कर प्रार्थना की कि महाराज मेरे प्रश्‍न का उत्तर तो नहीं दिया । आप परमधाम जाने को तैयार हो रहे हो । 
तपस्वी जी धैर्यपूर्वक बोले ~ मर्द हैं, मर्द । वेश्या बोली ~ यह बात तो आप पहले भी कह सकते थे । तपस्वी ~ मार्ग में चल रहे थे, तब कैसे कहते । मार्ग में फिसलकर गिर भी सकते थे या पथ से भटक भी सकते थे । आज मार्ग तय कर लिया, तब मर्द बन गये । वेश्या नत - मस्तक हो गई । तपस्वी परमेश्‍वर के स्वरूप में अभेद हो गये । 
*सांच* 
*साचा राता सांच सौं, झूठा राता झूठ ।* 
*दादू न्याय निबेरिये, सब साधों को पूछ ॥१७४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संतजन, सत्य ब्रह्म में ही रत रहते हैं और झूठे संसारीजन मिथ्या माया के कार्य प्रपंचों में ही आसक्त रहते हैं । हे साधक ! संतों के उपदेशों के विचार से ही सत्य - असत्य का निर्णय करिये और सत्य को अपनाइये ॥१७४॥
(क्रमशः)

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