गुरुवार, 23 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(४५/४७)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*चन्द सूर सिजदा करैं, नाम अलह का लेइ ।*
*दादू जमीं आस्मान सब, उन पावों सिर देइ ॥४५॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो सच्चे संत, परमेश्‍वर के प्यारे हैं, सदैव परमेश्‍वर का स्मरण करने वाले हैं, उनके चरणों में चन्द्रमा, सूर्य, जमीन, आसमान, सब प्रणाम करते हैं और परमेश्‍वर की आज्ञा से उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं ॥४५॥ 
बड़ा अवलिया अलह सम, नाम समस्त ब्रेज । 
कही सूर सों सेक दे, गोश्त कर अति तेज ॥ 
दृष्टान्त ~ मुलतान के बादशाह का लड़का गुजर गया । शहर में रोना - पीटना मच रहा था । दूसरे देश से घूमते हुए एक सूफी फकीर समस्त ब्रेज नाम के आ गये, वे सम्पूर्ण विश्‍व में परब्रह्म को व्यापक रूप में देखते थे, बोले ~ क्यों रोते हो ? लोगों ने कहा ~ “यहाँ के बादशाह का लड़का मर गया ।” फकीर ने पूछा ~ “क्यों मर गया ? कैसे मर गया ?” 
बादशाह ने समस्त ब्रेज को कहा ~ “सांई मेरा लड़का जीवित कर दो ।” समस्त ब्रेज बोले ~ “अल्लाह के नाम से उठ जा ।” जब नहीं उठा, तो बोला ~ “समस्त ब्रेज के नाम से जी कर उठ जा ।” लड़का बैठा हो गया । बादशाह बोला ~ “तू खूदा से भी जबरदस्त है ? तेरी चमड़ी भूसा भराने के लायक है ।” 
समस्त ब्रेज ने तत्काल पांव के दोनों अंगूठे, दोनों हाथों से पकड़कर झटका मारा, चमड़ी थैले की तरह सब निकल आई । बादशाह की तरफ फैंक कर बोले ~ “ले इसमें भूसा भर ।” फिर वैसे ही चल पड़े । मक्खियां बदन पर भिनभिनाने लगीं । किसी ने खाना तक उनको नहीं दिया । सभी दूर - दूर रहने लगे । एक कसाई ने क च्चे मांस का टुकड़ा दिया । वह लेकर नगर के बाहर आये । सूर्य की तरफ देखा और बोले ~ “तेरा भी नाम समस्त ब्रेज है और मेरा भी नाम समस्त ब्रेज है । जरा नीचे आ जा, तो मांस का टुकड़ा सिक जाये और मेरा बदन भी सिक जाये ।” 
तत्काल सूर्य कुछ नीचे आये । मांस का टुकड़ा भी सिक गया और बदन की चमड़ी भी सिक गई । सूर्य वापिस अपनी स्थिति पर पहुँच गया । उस दिन से सूर्य आज भी कुछ समय वहाँ नीचे गमन करते हैं । इसी से मुलतान में अधिक गर्मी और मुलतानी लोग अधिक काले होते हैं । 
*जे जन राते राम सौं, तिनकी मैं बलि जांव ।* 
*दादू उन पर वारणे, जे लाग रहे हरि नांव ॥४६॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो सच्चे संतभक्त, राम नाम की भक्ति में राते =रत्त और माते=मस्त रहते हैं, हम बार - बार बलिहारी जाते हैं और अपना तन - मन उनके ऊपर न्यौछावर करते हैं ॥४६॥ 
*साधु पारिख लक्षण* 
*जे जन हरि के रंग रंगे, सो रंग कदे न जाइ ।* 
*सदा सुरंगे संत जन, रंग में रहे समाइ ॥४७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जिन सच्चे भक्त और संतों ने, हरि के ज्ञान, भक्ति, वैराग्य रूपी रंग में अपने मन को रंग लिया, उनका वह रंग न तो कभी फीका रहता है और न कभी मिटता ही है । दिन - प्रतिदिन गहरा होता जाता है । ऐसे संतजन सदैव हरि रंग में सुरंगे बने रहते हैं और हरि के स्वरूप में ही समाये हुए रहते हैं ॥४७॥ 
(क्रमशः)

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