शुक्रवार, 24 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(५१/५३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*पर उपकारी संत सब, आये इहि कलि मांहि ।*
*पीवैं पिलावैं राम रस, आप सवारथ नांहि ॥५१॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस संसार में परम पिता परमात्मा परमार्थी है या उनके सच्चे संत - भक्त परमार्थ के लिये इस कलियुग में आये हैं, जैसे ~ कबीर साहब, ब्रह्मऋषि दादूदयाल, मीरां, नानक, इनसे आदि लेकर बहुत से संत परोपकार के निमित्त संसार में प्रकटे और जन समुदाय की अध्यात्म विचारों के द्वारा सेवा की और सत्य - मार्ग पर उत्तम अधिकारियों को ले गये । आपने राम - रस को पीया और जो भी उनकी शरण में आये, उन सबको जाति - पाँति, भेद - भाव रहित करके राम - रस पिलाया और आपसी प्रेम को बढ़ाया । ऐसा संतों के सिवाय और कौन परमार्थ कर सकता है ॥५१॥ 
गोरख ग्यारा बेर बिक्यो, परमारथ के काज । 
बिक्यो मुर्त्तजा अली, बार अठारे साज ॥ 
दृष्टान्त ~ एक दफा देश में भारी अकाल पड़ा । दुनियां बेघर हो गयी । गोरखनाथ महाराज को भी बड़ा दुःख हुआ । एक नगर में एक साहूकार, जो भी कोई भूखे आते, उनको एक मुट्ठी चना देता । बहुत से लोग वहाँ पड़े थे । गोरखनाथ जी साहूकार के पास आये और बोले ~ “इन सबको, एक - एक किलो तरातर हलवा देशी घी का बनवा कर बँटवा दे । इसका खर्चा हम देंगे ।” साहूकार धर्मनिष्ठ था । देखा कि संत हैं, चलो इनकी आज्ञा का पालन कर दें । 
हलवा बनवाकर, तोल - तोल कर सबको एक - एक सेर दे दिया । गोरखनाथ जी बोले ~ “हिसाब कर, क्या खर्च हुआ ?” साहूकार ~ “महाराज ! सब हिसाब राम के घर हो रहा है । “महात्मा बोले ~ “नहीं, हिसाब करो ।” साहूकार ने हिसाब कर दिया, इतना रुपया लगा है । गोरखनाथ बोले ~ हम तेरे नौकर हो गये, जब तक रूपया नहीं चुकेगा, नहीं जायेंगे । नौकरी बता ।” साहूकार ~ “यह बच्चा है । इसको स्कूल छोड़ आया करो और फिर घर लाकर संभलवा दिया करो । यही आप की नौकरी है ।” 
महात्मा वैसा ही करते रहे । साहूकार ने बच्चे से हिसाब कराया । हिसाब नहीं आया । बोला ~ “मास्टर को बोल देना, इसको अच्छा पढ़ावे ।” कुछ दिन में फिर हिसाब करवाया । फिर गड़बड़ा गया । साहूकार ~ “मास्टर को बोला नहीं तैंने ? इसको हिसाब क्यों नहीं आताहै ?” महात्मा ~ “मुझे क्या पता, क्यों नहीं आता है ? मुझे थोड़ा ही बोला है कि तूं पढ़ाया कर ।” साहूकार आवेश में आकर बोला ~ “तू पढ़ाया कर, तू पढ़ाया कर ।” महात्मा ने बच्चे को बुलाया । उसका मुँह चूम लिया, त्यों ही बच्चा लीलावती के हिसाब करने लगा और आगे पीछे की सब बताने लग गया । 
साहूकार ने चरणों में नमस्कार किया और बोला ~ “आप कौन हो ?” महात्मा ~ “साधु हैं ।” साहूकार ~ “नहीं, आप ईश्‍वर हैं । आपके शरीर का क्या नाम है ?” गोरख आप बोले ~ “यह बता, तेरे रुपये चुके कि नहीं ?” साहूकार गद्गद् हो गया । महात्मा बोले ~ “जब तक काल का समय रहे, तब तक सभी प्राणियों की अन्न - वस्त्र से सेवा कर”, यह कहकर प्रस्थान कर गये । इसी प्रकार गोरखनाथ जी ने अपना शरीर ग्यारह बार बिक्री करके जन - समुदाय की सेवा की । ऐसे ही मुर्त्तजा अली फकीर ने अठारह दफा अपने शरीर को बेचकर समाज सेवा की । 
साध शब्द अरु पुन्य की प्रबलता मन वीर । 
दुलहिन साधु पूजियो, दूल्हा अमर शरीर ॥ 
दृष्टान्त दूसरा ~ एक सन्त किसी भक्त सेठ के यहाँ ठहरे हुए थे । अर्धरात्रि को जब वे द्वार पर शयन कर रहे थे, एक स्त्री ने उनके पलंग के नीचे से निकल कर घर में प्रवेश किया । जब वह वापस लौटी, तब सन्तजी ने उससे पूछा ~ “तू कौन है ? और अन्दर क्यों गई थी ?” उस स्त्री ने उत्तर दिया ~ “मैं बेमाता हूँ, और सेठानी के ललाट पर ये अंक लिखकर आई हूँ कि उसके एक सुन्दर पुत्र होगा । जब वह १२ वर्ष का हो जायगा, तब उसका विवाह धूमधाम से एक सुन्दर सुशील कन्या से होगा, किन्तु कुछ ही दिनों में ऊपर की हवा की फटकार से मर जावेगा ।” 
यह कहकर बेमाता चली गई । दूसरे दिन प्रातःकाल सन्त ने सेठ को यह घटना सुनाकर कहा कि लड़का जब १२ वर्ष का हो जाय, तब विवाह ही मत करना । यह कह कर सन्त तो रम गये । सेठानी ने एक सुन्दर लड़के को जन्म दिया । उसके लाड़ - प्यार में भक्त सेठ सन्त के वचन को भूल गया । १२ वर्ष का होने पर एक धनिक सेठ की सुन्दर कन्या के साथ उसका विवाह कर दिया । जब सन्त को इस विवाह का पता चला तो वे तुरन्त उस गाँव में आये और सेठ की हवेली के सामने से निकले - “है कोई लगी को बुझावे, आम - बलाय दफा हो जावे ।” 
सेठ की नववधू ने ये शब्द सुने तो उसने सोचा - “कोई साधु भूखा है, पेट में भूख की आग लग रही है ।” उसने सादर साधु को बुलाकर भरपेट भोजन कराया । साधु ने प्रसन्न होकर बहू को अमर सुहाग का वरदान दिया, जिससे उसके पति की अकाल - मृत्यु टल गई । ऐसे सन्त परोपकारी होते है - “पर उपकारी सन्त सब आये इहि कलि मांहि ।” 
ब्रह्मऋषि सतगुरु देव कहतें हैं कि संत ही संसार में परोपकारी हैं । 
*पर उपकारी संत जन, साहिब जी तेरे ।* 
*जाती देखी आतमा, राम कहि टेरे ॥५२॥* 
टीका ~ हे परमेश्‍वर ! परमपिता ! आपके सच्चे भक्त - संत इस संसार में परोपकार के लिये ही आये हैं । हे साहिब ! निषिद्ध कर्मों के द्वारा संसारी जीवों को नरक मार्ग में जाते हुए देखकर आपके संत ही उनको बचाते हैं और कहते हैं कि हे जीवों ! राम - नाम का स्मरण करो । तब ही इन दुःखों से अर्थात् यमराज की मार से मुक्त होगे, अन्यथा नहीं । संत की आज्ञापालन करने से ही जीव, चौरासी के दुःखों से छूटते हैं ॥५२॥ 
तपड़ दियो बिछावनों, मान महाजन सीख । 
जन राघो पुन्य प्रताप तैं, फिर गई दफ्तर लीक ॥ 
दृष्टान्त ~ एक संत घूमते हुए एक शहर में करोड़पति बनिये की दुकान के सामने वृक्ष के नीचे ठहर गये । सायंकाल हो गया । सेठ ने दुकान बन्द करके सात ताले लगाये । पांव पूंछने की बोरी बाहर रह गई । देखा, सामने साधु बैठा है । बोरी उठाकर सोचा कि यहाँ से कोई उठा ले जायेगा, इस साधु के पास रख दें । रात को तो अब यह, यहाँ रहेगा ही । सवेरे मैं आकर ले लूंगा । महात्मा को बोला ~ “महाराज, यह बोरी रखता हूँ, ठंडी लगे तो ओढ लेना रात को । सवेरे जाओ तो दुकान पर रख जाना ।” महात्मा समझ गये कि यह बोरी की चौकीदारी करवाता है । 
महात्मा बोले ~ “अच्छा भाई ! आस - पास के, पैसे में छोटे, लोग महात्मा के पास आये । “महाराज ! सेठ क्या कहता था ? सेवा वगैरा कुछ की ?” महात्मा ने उपरोक्त सब बात कह दी । लोगों ने महात्मा जी की अन्न - पानी से सेवा की और सत्संग किया । सर्दी का मौसम था । आधी रात में जब ठंडी लगने लगी, तो महात्मा ने उस बोरी को आधा घंटा अपनी पीठ पर डाल लिया, फिर विचार किया, कल भी हमें ऐसे ही रहना है, तो उतार कर रख दी । 
सवेरे सेठ आया । “महाराज बैठे हो ।” “हाँ भाई, बैठे हैं, तू कहे तो खड़े हो जावें, तेरी चौकीदारी करते हैं ।” सेठ बोरी ले गया । महात्मा वहाँ से रम गये । आगे किसी शहर में पहुँचे, वहाँ भक्तों के आग्रह से बहुत समय तक ठहरे । इधर सेठ बीमार हो गया । कई दिनों बीमार चला । अन्त समय आ पहुँचा । यमराज ने यमदूतों को आज्ञा दी कि उसको मारते - पीटते लाओ । यमदूतों ने उसके सूक्ष्म शरीर को निकाला और यमराज के पास ले गये । 
पाप - पुण्य देखा । जिन्दगी में कभी भी न राम - नाम स्मरण किया और न धर्म - पुण्य किया । वह तपड़ निकला । यमराज बोला ~ पुण्य तो इसका कुछ है, क्योंकि महात्मा ने ओढा है । उनके दर्शन कराके ले आओ इसको फिर यमलोक की त्रास देना । यमदूतों ने उसके सूक्ष्म शरीर को स्थूल में डाला । यह उठकर यमदूतों के साथ चलने लगा । जिस शहर में महात्मा ठहरे थे, वहीं पहुंचे । 
यमदूत बोले ~ “हम यहाँ खड़े हैं । तुम गुरु महाराज के दर्शन कर आओ और जल्दी आना ।” संत के सामने गया, रोने लगा । महात्मा बोले ~ “रो मत । राम - राम कह । तू वही है, जिसने हमको बोरी दी थी ? रोता क्यों है ?” उधर यमदूतों ने आवाज दी । पीछे देखने लगा । महात्मा ने पूछा ~ “क्या बात है ?” पूर्वोक्त वृत्तान्त सब सुना दिया ।
महात्मा ~ “सुने ही मत, राम - राम करे जा ।” जब राम - राम करने लगा, तब महात्मा यमदूतों से बोले ~ “राम - राम कहने वाले भी कभी नरक में गये हैं क्या ? यमराज को बोल दो । पहले महात्मा को यमलोक में बुलाओ, फिर बनिया आवेगा ।” यमदूतों ने सब वृत्तान्त यमराज को जा सुनाया । यमराज बोले ~ “अब उसके सब पापों पर लीक फेर दो । अब यमलोक में नहीं आवेगा, संतों की शरण में चला गया है ।” 
ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज कहते हैं कि संत राम - नाम कहलाकर जीवों को नरक से बचाते हैं । 
*चंद सूर पावक पवन, पाणी का मत सार ।* 
*धरती अंबर रात दिन, तरुवर फलैं अपार ॥५३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमपिता परमेश्‍वर की आज्ञा मान कर चन्द्रमा, सूर्य, पानी, पवन, आकाश, पृथ्वी, रात, दिन, तरुवर, ये सब ही परमेश्‍वर की आज्ञानुसार परोपकार करते हैं । इनको कोई स्वार्थ नहीं हैऔर संत भी प्रभु की प्रेरणा को मान कर परोपकार का ही व्रत धारण करते हैं । ऐसे परोपकारियों को ही धन्य हैं ॥५३॥ 
(क्रमशः)

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