शुक्रवार, 24 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(५४/५६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*छाजन भोजन परमार्थी, आतम देव आधार ।*
*साधु सेवक राम के, दादू पर उपकार ॥५४॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमपिता परमेश्‍वर की आज्ञा मानकर परमेश्‍वर के सच्चे भक्त और संत, जन - समुदाय में गरीब - जनों की वस्त्र से, अन्न से सेवा रूप परोपकार करते रहते हैं, निष्काम भाव से सभी में आत्मा रूप देव को अर्थात् परमेश्‍वर को जानकर कि यह परमेश्‍वर की सेवा है, उनकी आज्ञा का पालन करते हैं । सतगुरु महाराज कहते हैं कि ऐसे परोपकारी पुरुष, परमेश्‍वर के ही स्वरूप हैं ॥५४॥
पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः 
खादन्ति न स्वादुफलानि वृक्षाः । 
पयोधरा वर्षन्ति नात्महेतोः, 
परोपकाराय सतां विभूतयः॥
अंग उघाड़े देखकर, बण मन उपजी लाज । 
लोढण पढ़दण कातण सह्यो, पर के ढाकण काज॥
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*साधु साक्षीभूत*
*जिसका तिसको दीजिये, सुकृत पर उपकार ।*
*दादू सेवक सो भला, सिर नहिं लेवे भार ॥५५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! परमपिता परमेश्‍वर की और सच्चे संत भक्तों की आज्ञानुसार, यह मनुष्य शरीर जिसने दिया है, इसको सुकृत कर्मों के द्वारा उसी के अर्पण करना चाहिये । वही सेवक भक्त अधिकारी श्रेष्ठ है, जो परमात्मा की आज्ञा का पालन करता है । अपने सिर पर वह पाप का बोझा नहीं लेता ॥५५॥
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*परमार्थ को राखिये, कीजे पर उपकार ।*
*दादू सेवक सो भला, निरंजन निराकार॥५६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो मनुष्य, मनुष्य शऱीर को पाकर धन आदि संग्रह करके निर्वासनिक होकर परोपकार में लगाता है, वही सेवक धन्य है । वह निरंजन, निराकार स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त करता है ॥५६॥
परेषामुपकारं ये कुर्वन्ति स्वशक्तितः । 
धन्यास्तेऽत्र विज्ञेयाः पवित्रा लोकपावनाः ॥
(क्रमशः)

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