शनिवार, 25 मई 2013

= साधु का अंग १५ =(५७/५९)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= साधु का अंग १५ =*
*सेवा सुकृत सब गया, मैं मेरा मन मांहि ।*
*दादू आपा जब लगै, साहिब मानै नांहि ॥५७॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब तक अन्तःकरण में अहंत्व ममत्व भाव है, तब तक सब सेवा और सुकृत निष्फल ही है, क्योंकि जब तक व्यष्टि आपा है, तब तक परमेश्‍वर सेवा स्वीकार नहीं करते । जनसमुदाय की सेवा और निष्काम सुकृत कर्म करने से मैं - मेरा आदिक व्यष्टि अहंकार सब निवृत्त हो जाता है, क्योंकि ईश्‍वर आपे को, कहिए अहंकार को मान्यता नहीं देते हैं ॥५७॥ 
रज्जब रीती बन्दगी, जब लग आपा मांहि । 
मनसा वाचा कर्मना, साहिब मानै नांहि ॥ 
करतब कर खाली रहै, जे मन आपो आइ । 
‘तुलसी’ अहं मेरे बिना कैसे राम रिझाइ ॥ 
इन्दव छन्द 
दान करेहु बखान करे जब, 
होवत हानि पिछानत नांहीं । 
मान गुमान मिजाज मनी दिल, 
जाइ समाज विराजत तांहीं ॥ 
सो भगवान न मानत मूरख, 
कोटि करै न कछू फल पांहीं । 
या हि तैं त्याग हरी अब आपहि, 
लाग हरी भजने मन मांहीं ॥ 
*साधु पारिख लक्षण* 
*साधु शिरोमणि शोध ले, नदी पूर पर आइ ।* 
*संजीवनि साम्हा चढै, दूजा बहिया जाइ ॥५८॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह संसार ही एक नदी है और नाना प्रकार का विषय - वासना रूपी इसमें जल बहता है । जैसे मछली नदी के जल में प्रवाह के सामने चढती है, बाकी सभी जीव बह जाते हैं और सजीवनी बूंटी जल के प्रवाह के सामने नाग - रूप धर के प्रवाह को तोड़ती हुई सामने चढ़ती है और सभी लकड़ियाँ बह जाती हैं, इसी प्रकार संसार - नदी में विषय - प्रवाह को तोड़ते हुए यानी उसमें उपराम होकर वीतराग पुरुष परमेश्‍वर को प्राप्त होते हैं । बाकी तो सभी असाधु पुरुष विषय - वासना, कनक - कामना के प्रवाह में बह जाते हैं ॥५८॥ 
जड़ी संजीवनि परखिये, सर्प ह्वै सांमी बहाइ । 
तिमि हरिजन जगवृत्ति तज, भगवत भक्ति गहाइ ॥ 
*जिनके मस्तक मणि बसै, सो सकल शिरोमणि अंग ।* 
*जिनके मस्तक मणि नहीं, ते विष भरे भुवंग ॥५९॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे मणिधारी सर्प ही पूजनीय और देव जाति का है, बाकी तो सभी सर्प केवल विष से ही भरे हुए हैं । दार्ष्टान्त में, जो संत ज्ञान, ध्यान, नाम - स्मरण रूपी मणि को धारण किये हुए हैं, वहीं संसार में पूजनीय और श्रेष्ठ हैं । हे अंग ! हे प्रिय साधक ! बाकी तो सभी विषय - वासना रूप जहर से भरे हुए त्याज्य ही हैं ॥५९॥ 
ठठा भखर सों चली, माई दरसन काज । 
ताको यह साखी कही, गुरु दादू सिरताज ॥ 
दृष्टान्त ~ सिंध के ठठा भखर से एक माई ब्रह्मऋषि के शब्द सुनकर दर्शन करने को आमेर आई । 
“माई ! इतनी दूर कष्ट क्यों किया, उधर ही बहुत संत थे” । सिंधी माई बोली ~ “बिना मणिधारी सांप जैसे साधु तो बहुत मिले, उनकी मुझे चाहना नहीं । जिनके मस्तक में मणि है, उनके दर्शनों की ही मुझे इच्छा है ।”
सूनां सर्प न लोड़िये, जे लोडूँ तो लक्ख, 
जिन्दे मस्तक मणि बसै, सांनू तिन्दी भुक्ख ॥ 
चाहूँ ते पाऊं नहिं, पाऊं ते न सुहाइ । 
लक्ख बसौ इहि धग्गड़े, उज्जड़ मेरे भाइ ॥ 
लोडंदा पाऊँ नहीं, अणलोड़ंदा ढ़ेर । 
अक्कां डोड सुहावने, अम्बा तुलें न बेर ॥ 
(क्रमशः)

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