॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
.
*= साधु का अंग १५ =*
.
*साधु महिमा*
*दादू इस संसार में, ये द्वै रत्न अमोल ।*
*इक सांई अरु संतजन, इनका मोल न तोल ॥६०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! इस संसार में ये दो रत्न अमूल्य हैं,(१) परमेश्वर और उसका नाम - स्मरण और(२) सच्चे परमेश्वर के संत । इन दोनों रत्नों का न तो मोल है और न इनकी तुलना में ही कोई दूसराहै । ये भाग्य से ही प्राप्त होते हैं या परमेश्वर व सन्त की दया से प्राप्त होते हैं ॥६०॥
कहै कबीर या कलि में, ये द्वै बात अगाध ।
मुक्ति करै अरु मुक्त है, परमेश्वर निज साध ॥
.
*दादू इस संसार में, ये द्वै रहै लुकाइ ।*
*राम स्नेही संतजन, और बहुतेरा आइ ॥६१॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे परमेश्वर के प्यारे, ब्रह्मनिष्ठ, मुक्तजन संतों की महिमा संसार के साधारण प्राणी नहीं जानते हैं और संत निष्काम होकर लोक - प्रतिष्ठा से छुपे हुए हैं । ऐसे राम के अनन्त भक्तों का दर्शन कठिन है, और तो बहुत सकामी भक्त आते हैं और जाते हैं ॥६१॥
कह कबीर या कलि में, येह दो वस्तु अगाध ।
मुक्ति करैं अरु मुक्त ह्वैं, परमेश्वर अरु साध ॥
.
*सगे हमारे साधु हैं, सिर पर सिरजनहार ।*
*दादू सतगुरु सो सगा, दूजा धंध विकार ॥६२॥*
टीका ~ ब्रह्मऋषि दादू दयाल महाराज कहते हैं कि हे जिज्ञासुओं ! हमारे नाते - रिश्तेदार तो परमेश्वर के सच्चे भक्त संतजन ही हैं और हमारे मस्तक के ऊपर सारे संसार की उत्पत्ति, पालन, संहार करने वाला, सिरजनहार है, उसी को हमने मस्तक पर धारण किया है । और दूसरे सत्य उपदेश के देने वाले सतगुरु हमारे सगे हैं, इनके अतिरिक्त द्वन्द्व कहिये अन्धकाररूप और परिवर्तनशील, सब नाते - रिश्ते हैं, उनसे हमारा क्या मतलब है ॥६२॥
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें